महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 44 श्लोक 25-31
चतुश्र्चत्वारिंश (44) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)
धृतराष्ट्र बोले- विद्वान् पुरूष यहां सत्य स्वरूप परमात्मा के जिस अमृत एवं अविनाशी परमपद का साक्षात्कार करते हैं, उसका रूप कैसा है? क्या वह सफेद-सा, लाल-सा, काजल-सा, काला या सुवर्ण जैसे पीले रंग का प्रतीत होता है?
सनत्सुजात ने कहा- यद्यपि श्वेत, लाल, कालें, लोहे के सहश अथवा सूर्य के समान प्रकाशमान अनेकों प्रकार के रूप प्रतीत होते है, तथापि ब्रह्म का वास्तविक रूप न पृथ्वी में है, न आकाश में। समुद्र का जल भी उस रूप को नहीं धारण करता। इस ब्रह्म का वह रूप न तारों में है, न बिजली के आश्रित है और न बादलों में ही दिखायी देता है। इसी प्रकार वायु, देवगण, चन्द्रमा और सूर्य में भी वह नहीं देखा जाता। राजन्! ॠग्वेद की ॠचाओं में, यजुर्वेद के मन्त्रों में, अथर्ववेद के सूक्तों में तथा विशुद्ध सामवेद में भी वह नहीं दृष्टिगोचर होता। रथन्तर और बार्हद्रथ नामक साम में तथा महान् व्रत में भी उसका दर्शन नहीं होता; क्योंकि वह ब्रह्म नित्यहै। ब्रह्म के उस स्वरूप का कोई पार नहीं पा सकता। वह अज्ञान रूप अन्धकार से सर्वथा अतीत हैं। महाप्रलय में सबका अन्त करने वाला काल भी उसी में लीन हो जाता है। वह रूप अस्तुरे की धार के समान अत्यन्त सूक्ष्म और पर्वतों से भी महान् है (अर्थात् वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर और महान-से भी महान् है) वही सबका आधार है, वही अमृत है, वही लोक, वही यश तथा वही ब्रह्म है। सम्पूर्ण भूत उसी से प्रकट हुए और उसी में लीन होते हैं। विद्वान् कहते है, कार्यरूप जगत् वाणी का विकार-मात्र है; किंतु जिसमें यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है, वह ब्रह्म रोग, शोक और पाप से रहित है और उसका महान् यश सर्वत्र फैला हुआ है। उन नित्य कारणस्वरूप ब्रह्म को जो जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं अर्थात् मुक्त हो जाते हैं।
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