महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 45 श्लोक 14-21
पञ्चचत्वारिंश (45) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)
जो धनी गृहस्थ इस प्रकार गुणवान्, त्यागी और सात्विक होता हैं, वह अपनी पांचों इन्द्रियों से पांचों विषयों को हटा देता हैं। जो (वैराग्य की कमी के कारण) सत्त्व से भ्रष्ट हो गये हैं, ऐसे मनुष्यों के दिव्य लोकों की प्राप्ति के संकल्प से संचित किया हुआ यह इन्द्रियनिग्रहरूप तप समुद्र होने पर भी केवल ऊर्ध्वलोकों की प्राप्ति का कारण होता है (मुक्ति का नहीं)। क्योंकि सत्यस्वरूप ब्रह्म का बोध न होने से ही इन सकाम यज्ञों की वृद्धि होती हैं। किसी का यज्ञ मन से, किसी का वाणी से और किसी का क्रिया के द्वारा सम्पन्न होता है। संकल्पसिद्ध अर्थात् सकामपुरूष से संकल्परहित यानी निषकामपुरूष की स्थिति ऊंची होती है; किंतु ब्रह्मवेत्ता की स्थिति उससे भी विशिष्ट है। इसके सिवा एक बात और बताता हूं, सुनो। यह महत्वपूर्ण शास्त्र परम यशरूप परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला है, इसे शिष्यों को अवश्य पढा़ना चाहिये। परमात्मा-से भिन्न यह सारा हश्य-प्रपञ्च वाणी का विकारमात्र है- ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। इस योगशास्त्र में यह परमात्मविषयक सम्पूर्ण ज्ञान प्रतिष्ठित है; इसे जो जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं अर्थात् जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं। राजन्! (निष्काम भाव के बिना किये हुए) केवल पुण्यकर्म के द्वारा सत्यस्वरूप ब्रह्म को नहीं जीता जा सकता। अथवा जो हवन या यज्ञ किया जाता है, उससे भी अज्ञानी पुरूष अमरत्व- मुक्ति को नहीं पा सकता तथा अन्त-काल में उसे शान्ति भी नहीं मिलती। इसलिये सब प्रकार की चेष्टा से रहित होकर एकान्त में उपासना करे, मन से भी कोई चेष्टा न होने दे तथा स्तुति में राग और निन्दा में द्वेष न करे। राजन्! उपर्युक्त साधन करने से मनुष्य यहां ही ब्रह्म का साक्षात्कार करके उसमें विलीन हो जाता हैं। विद्वन्! वेदों में क्रमश: विचार करके जो मैंने जाना है, वही तुम्हें बता रहा हूं।
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