महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 51 श्लोक 52-61
एकपञ्चाशत्तम (51) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
जो लोग पाण्डवों से युद्ध करना चाहते हैं, उन सबके लिये मुझे बड़ा शोक हो रहा है। विदुर ने पहले ही उच्च स्वर से जिसकी घोषणा की थी, वही यह भय आज आ पहुंचा है । संजय! मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि ज्ञान दु:ख का नाश नहीं कर सकता, अपितु प्रबल दु:ख ही ज्ञान का भी नाश करने वाला बन जाता है । जीवन्मुक्त महर्षि भी लोक व्यवहार की ओर दृष्टि रखकर सुख के साधनों से सुखी और दु:ख से दुखी होते हैं । फिर जो पुत्र, राज्य, पत्नी, पौत्र तथा बन्धु-बान्धवों में जहां-तहां सहस्त्रों प्रकार से मोहवश आसक्त हो रहा है, उसकी तो बात ही क्या है? इस महान् संकट के विषय में मैं क्या उचित प्रतीकार कर सकता हूं? मुझे तो बार-बार विचार करने पर कौरवों का विनाश ही दिखायी पड़ता है । द्यूतक्रीड़ा आदि की घटनाएं ही कौरवों पर भारी विपत्ति लाने का कारण प्रतीत होती हैं। ऐश्र्वर्य की इच्छा रखने वाले मूर्ख दुर्योधन ने लोभवश यह पाप किया है । मैं समझता हूं कि अत्यन्त तीव्र गति से चलने वाले काल का ही यह क्रमश: प्राप्त होने वाला नियम है। इस कालचक्र में उसकी नेमि के समान मैं जुड़ा हुआ हुं, अत: मेरे लिये इससे दूर भागना सम्भव नहीं है । संजय! क्या करूं, कैसे करूं और कहां चला जाऊं? ये मुर्ख कौरव काल के वशीभूत होकर नष्ट होना चाहते हैं । तात! मेरे सौ पुत्र यदि युद्ध में मारे गये, तब विवश होकर मैं इनकी अनाथ स्त्रियों का करूण-क्रन्दन सुनूंगा। हाय! मेरी मृत्यु किस प्रकार हो सकती है? जैसे गर्मी में प्रज्वलित हुई अग्नि हवा का सहारा पाकर घार-फूस एवं जंगल को भी जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन सहित पाण्डुनन्दन भीम गदा हाथ में लेकर मेरे सब पुत्रों को मार डालेगा ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में धृर्तराष्ट्रवाक्यविषयक इक्यावनवां अध्याय पूरा हुआ ।
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