महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 57 श्लोक 42-62
सप्तपञ्चाशत्तम (57) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
मेरे पक्ष की विशाल रथसेना तथा मेरे सैनिकों के बाण-समूहों से आहत होकर पाञ्चाल और पाण्डव भाग खडे़ होंगे।
धृतराष्ट्र बोले- संजय! मेरा यह पुत्र पागल के समान प्रलाप कर रहा हैं। यह युद्ध में धर्मराज युधिष्ठिर को कभी जीत नहीं सकता। पुत्रों सहित धर्मज्ञ एवं यशस्वी महात्मा पाण्डव कितने बलशाली हैं, इस बात को भीष्मजी अच्छी तरह जानते है। इसीलिये उन्हें उन महात्माओं के साथ युद्ध छेड़ने की बात पसंद नहीं आयी। संजय! तुम पुन: मेरे सामने पाण्डवों की चेष्टा का वर्णन करो। कौन ऐसा वीर है, जो वेगशाली और तेजस्वी महाधनुर्धर पाण्डवों को बार-बार उसी प्रकार उत्तेजित किया करता हैं, जैसे धीकी आहुति डालने से आग प्रज्वलित हो उठती है।
संजय ने कहा- भारत! धृष्टद्युम्न सदा ही इन पाण्डवों को उत्तेजित करते रहते हैं। वे कहते हैं- ‘भरतकुलभूषण पाण्डवों। आप लोग युद्ध करें, उससे तनिक भी भयभीत न हों। ‘धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के द्वारा एकत्र किये हुए जो-जो नरेश अस्त्र-शस्त्रों की मारकाट से व्याप्त हुए भयानक संग्राम में मेरे सामने आयेंगे, वे कितने ही क्रोध में भरे हुए क्यों न हों, सगे-सम्बन्धियों सहित रणभूमि में आये हुए उन सभी राजाओं को मैं अकेला ही उसी प्रकार वश में कर लूंगा, जैसे तिमि नामक महामत्स्य जल की दूसरी मछलियों को निगल जाता है। ‘भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्र्वत्थामा, शल्य तथा दुर्योधन- इन सबको मैं उसी भांति आगे बढ़ने से रोक दूंगा, जैसे किनारा समुद्र को रोके रखता है’। इस प्रकार बोलते हुए धृष्टद्युम्न से धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने कहा- ‘महाबाहो! पाण्डवों सहित समस्त पाञ्चाल वीर तुम्हारे धैर्य और पराक्रम का ही आश्रय लेकर युद्ध के लिये उद्यत हुए हैं, इसलिये तुम्हीं इस संग्राम से हम लोगों का उद्धार करो। मैं जानता हूं कि तुम क्षत्रिय धर्म में प्रतिष्ठित हो और युद्ध की इच्छा से सामने आये हुए समस्त कौरवों को अकेले ही कैद कर लेने की पूरी शक्ति रखते हो।
‘परंतप! तुम जो कुछ करोगे, वही हमारे लिये मङ्गलकारी होगा। जो वीर पुरूष अपना पौरूष प्रकट करते हुए युद्धभूमि से पराजित होकर भागे हुए शरणार्थी सैनिकों के सामने खड़ा होता (और उनके भय का निवारण करता) है, उसे सहस्त्रोंकी सम्पत्ति देकर भी खरीद ले (अपने पक्ष में कर ले); यही नीतिज्ञ पुरूषों का मत है। ‘नरश्रेष्ठ! इसमें संदेह नहीं कि तुम शूर, वीर और पराक्रमी हो तथा युद्ध में भय से पीड़ित हुए सैनिकों की रक्षा कर सकते हो’। धर्मात्मा कुन्तीकुमार युधिष्ठिर जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय धृष्टद्यूम्न ने मुझ से भय रहित यह वचन किया- ‘सूत! वहां दुर्योधन के जितने योद्धा हैं, उनसे, समस्त देशवासियों से, बाह्लीक आदि प्रतीपवंशीकौरवों से, शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य से, सूतपुत्र कर्ण से, द्रोणाचार्य और अश्र्वत्थामा से तथा जयद्रथ, दु:शासन, विकर्ण, राजा दुर्योधन और भीष्म से भी शीघ्र जाकर मेरा यह संदेश कहो। अभी जाओ, विलम्ब मत करों। (वह संदेश इस प्रकार है-) ‘कौरवो! राजा युधिष्ठिर सद्व्यवहार से ही वश में किये जा सकते हैं (युद्ध से नही) ।ऐसा अवसर न आने दो कि देवताओं द्वारा सुरक्षित वीरवर अर्जुन तुम लोगों का वध कर डालें। धर्मराज युधिष्ठिर को शीघ्र उनका राज्य सौंप दो और विश्र्वविख्यात वीर पाण्डुकुमार अर्जुन से क्षमा-याचना करो। ‘सव्यसाची पाण्डुपुत्र अर्जुन जैसे सत्यपराक्रमी हैं, वैसा योद्धा इस भूमण्डल में दूसरा कोई नहीं है। ‘गाण्डीव धनुष धारण करने वाले वीर अर्जुन का दिव्य रथ देवताओं द्वारा सुरक्षित है। कोई भी मनुष्य उन्हें जीत नहीं सकता, अत: तुम लोग अपने मन को युद्ध की ओर न जाने दो’।
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