महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-20
सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
- श्रीकृष्ण का भीमसेन को आश्वासन देना
श्रीभगवान बोले – भीमसेन ! मैंने तो तुम्हारा मनोभाव जानने के लिए ही प्रेम से ये बातें कही हैं, तुम पर आक्षेप करने, पण्डिताई डिकाहने, क्रोध प्रकट करने या व्याख्यान देने की इच्छा से कुछ नहीं कहा है। मैं तुम्हारे माहात्म्य को जानता हूँ । तुममें जो बल और पराक्रम है, उससे भी परिचित हूँ और तुमने जो बड़े-बड़े पराक्रम किए हैं, वे भी मुझसे छिपे नहीं हैं; अत: मैं तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर सकता। पांडुनन्दन ! तुम अपने में जैसे कल्याणकारी गुण की संभावना करते हो, उससे भी सहस्त्रगुने सद्गुणों की संभावना तुम में मैं करता हूँ। भीमसेन ! समस्त राजाओं द्वारा सम्मानित जैसे प्रतिष्ठित कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है, अपने बंधुओं और सुहृदों सहित तुम वैसी ही प्रतिष्ठा के योग्य हो। वृकोदर ! देवधर्म ( प्रारब्ध ) और मानुष धर्म ( पुरुषार्थ ) का स्वरूप संदिग्ध है । लोग दैव और पुरुषार्थ दोनों के परिणाम को जानना चाहते हैं, परंतु किसी निश्चय तक पहुँच नहीं पाते । क्योंकि उपर्युक्त पुरुषार्थ ही कभी पुरुष की कार्य-सिद्धि में कारण बनकर कभी विनाश का भी हेतु बन जाता है । इस प्रकार जैसे देव का फल संदिग्ध है, वैसे ही पुरुषार्थ का भी फल संदिग्ध है। दोषदर्शी विद्वानों द्वारा अन्य रूप में देखे या विचारे हुए कर्म वायु के वेगों की भांति बदलकर किसी दूसरे ही रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। अच्छी तरह विचारपूर्वक निश्चित किए हुए, उत्तम नीति से युक्त तथा न्यायपूर्वक संपादित किए हुए मानव-संबंधी पुरुषार्थसाध्य कर्म भी कभी दैववश बाधित हो जाते हैं – उनकी सिद्धि में विघ्न पड़ जाता है। भारत ! दैवकृत कार्य भी समाप्त होने से पहले पुरुषार्थ द्वारा नष्ट कर दिया जाता है । जैसे शीत का निवारण वस्त्र से, गर्मी का व्यंजन से, वर्षा का छत्र से और भूख-प्यास का निवारण अन्न और जल से हो जाता है। प्रारब्ध के अतिरिक्त जो पुरुष का स्वयं अपना किया हुआ कर्म है, उससे भी फल की सिद्धि होती है । इस विषय में यथेष्ट उदाहरण मिलते हैं। पांडुनंदन ! पुरुषार्थ को छोड़कर दूसरे किसी साधन से - केवल दैव से मनुष्य का जीवन निर्वाह नहीं हो सकता । ऐसा विचारकर उसे कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए । फिर प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों के संबंध से फल की प्राप्ति होगी। जो अपनी बुद्धि में ऐसा निश्चय करके कर्मों में ही प्रवृत्त होता है, वह फल की सिद्धि न होने पर दुख नहीं होता और फल की प्राप्ति होने पर भी हर्ष का अनुभव नहीं करता। भीमसेन ! मुझे इस विषय में अपना यह निश्चय बताना अभीष्ट है कि युद्ध में शत्रुओं के साथ भिड़ने पर अवश्य ही विजय प्राप्त होगी, यह नहीं कहा जा सकता। मनोभाव बदल जाये अथवा प्रारब्ध के अनुसार कोई विपरीत घटना घटित हो जाये, तो भी सहसा अपने तेज और उत्साह को सर्वथा नहीं छोड़ना चाहिए । विषाद एवं ग्लानि का अनुभव नहीं करना चाहिए – यह बात भी मैंने तुम्हें आवश्यक समझकर बताई है। पांडुनंदन ! कल सवेरे मैं राजा धृतराष्ट्र के समीप जाकर तुम लोगों के स्वार्थ की सिद्धि में तनिक भी बाधा न पहुंचाते हुए दोनों पक्षों में संधि कराने का प्रयत्न करूँगा। यदि वे संधि स्वीकार कर लेंगे तो मुझे अक्षय यश की प्राप्ति होगी । तुम लोगों का मनोरथ भी पूर्ण होगा और कौरवों का भी परम कल्याण होगा। यदि वे कौरव युद्ध का ही आग्रह दिखायेंगे और मेरे संधि विषयक प्रस्ताव को ठुकरा देंगे, तन यहाँ युद्ध ही होगा, जो भयंकर कर्म है। भीमसेन ! इस युद्ध में सारा भार तुम्हारे ऊपर ही रखा जायेगा एवं अर्जुन इस भार को धारण करेगा । अन्य लोगों का भार भी तुम्हीं दोनों को ढोना है। युद्ध आरंभ होने पर मैं अर्जुन का सारथी बनूँगा । यही अर्जुन की इच्छा है । तुम यह न समझो कि मैं युद्ध होने देना नहीं चाहता। वृकोदर ! इसलिए जब तुम कायरतापूर्ण वचनों द्वारा शांति का प्रस्ताव करने लगे, तब मुझे तुम्हारे युद्ध विषयक विचार के बादल जाने का संदेह हुआ, जिसके कारण पूर्वोक्त बातें कहकर मैंने तुम्हारे तेज को उद्दीप्त कि।
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