महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 79 श्लोक 1-21

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकोनाशीतितम (79) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना

श्रीभगवान बोले – महाबाहु पांडुकुमार ! तुम जैसा कहते हो, वैसा करना उचित है । मैं वही करने का प्रयत्न करूँगा, जिससे कौरव तथा पांडव – दोनों का संकट दूर हो – दोनों सुखी हो सकें। अर्जुन ! इसमें संदेह नहीं कि शांति और युद्ध – इन दोनों कार्यों में से किसी एक को हितकर समझकर अपनाने का सारा दायित्व मेरे हाथ में आ गया है; तथापि ( इसमें प्रारब्ध की अनुकूलता अपेक्षित है ) कुंतीनंदन ! जुताई और सिंचाई करके कितना ही शुद्ध और सरस बनाया हुआ खेत क्यों न हो, कभी-कभी वर्षा के बिना वह अच्छी उपज नहीं दे सकता। जिस खेत में जुताई और सिंचाई की गयी है, वहाँ यह पुरुषार्थ ही किया गया है; परंतु वहाँ भी दैववश सूखा पड़ गया, यह निश्चितरूप से देखा जाता है [ अत: पुरुषार्थ की सफलता के लिए प्रारब्ध की अनुकूलता आवश्यक है ] इसलिए पूर्वकाल के महात्माओं ने अपनी बुद्धि द्वारा यही निश्चय किया है कि लोकहित का साधन दैव तथा पुरुषार्थ दोनों पर निर्भर है। मैं पुरुषार्थ से जितना हो सकता है, उतना संधिस्थापन के लिए अधिक-से-अधिक प्रयत्न करूँगा; परंतु प्रारब्ध के विधान को किसी प्रकार भी टाल देना या बदल देना मेरे लिए संभव नहीं है। दुर्बुद्धि दुर्योधन सदा धर्म और लोकाचार को छोड़कर ही चलता है, परंतु इस प्रकार धर्म और लोक के विरुद्ध कार्य करके भी वह उससे संतप्त नहीं होता। इतने पर भी उसके मंत्री शकुनि, सुतपुत्र कर्ण तथा भाई दु:शासन – ये उसकी अत्यंत पापपूर्ण बुद्धि को बढ़ावा देते रहते हैं। कुंतीपुत्र ! अपने सगे संबंधियों सहित दुर्योधन जब तक मारा नहीं जाएगा, तब तक वह राज्यभाग देकर कदापि संधि नहीं करेगा। धर्मराज युधिष्ठिर भी नम्रतापूर्वक संधि के लिए अपना राज्य छोड़ना नहीं चाहते हैं । उधर दुर्बुद्धि दुर्योधन मांगनें पर भी राज्य नहीं देगा। भरतनन्दन ! धर्मराज युधिष्ठिर ने केवल पाँच गांवों को मांगने के लिए जो आज्ञा दी है तथा नम्रतापुर्ण वचनों में जो संधि का प्रयोजन बताया है, वह सब दुर्योधन से कहना उचित नहीं है – ऐसा मैं मानता हूँ, क्योंकि वह कुरुकुल कलंक पापात्मा उन सब बातों को कभी स्वीकार नहीं करेगा । हम लोगों का प्रस्ताव स्वीकार न करने पर वह इस जगत् में अवश्य ही वध के योग्य हो जाएगा। भारत ! जिसने तुम सब लोगों को कुमारावस्था में भी सदा नाना प्रकार के कष्ट दिये हैं, जिस दुरात्मा एवं निर्दयी ने तुम्हारे राज्य का भी अपहरण कर लिया है तथा जो पापी दुर्योधन युधिष्ठिर के पास संपत्ति देखकर शांत नहीं रह सकता है, वह मेरे और समस्त संसार के लिए वध्य है। कुंतीनंदन ! उसने मुझे भी तुम्हारी ओर से फोड़ने के लिए अनेक बार चेष्ठा की है, परंतु मैंने उसके पापपूर्ण प्रस्ताव को कभी स्वीकार नहीं किया है। महाबाहो ! तुम जानते ही हो कि दुर्योधन की भी मेरे विषय में यही निश्चित धारणा है कि मैं धर्मराज युधिष्ठिर का प्रिय करना चाहता हूँ। अर्जुन ! इस प्रकार तुम दुर्योधन के मन की भावना तथा मेरे दृढ़ निश्चय को जानते हुए भी आज अनजान कि भाँति क्यों मुझ पर संदेह कर रहे हो ? कुंतीकुमार ! जो देवताओं का परम दिव्य ( भूभार उतारने के लिए ) निश्चित विधान है, उससे भी तुम सर्वथा परिचित हो । फिर शत्रुओं के साथ संधि कैसे हो सकती है ? पांडुनंदन ! मेरे द्वारा वाणी और प्रयत्न से जो कुछ हो सकता है, वह मैं अवश्य करूँगा; परंतु पार्थ ! मुझे यह तनिक भी आशा नहीं है कि शत्रुओं के साथ संधि हो जायेगी विराटनगर में गोहरण के समय तुम्हारे अज्ञातवास का वर्ष पूरा हो चुका था । उस समय भीष्मजी ने मार्ग में दुर्योधन से याचना की कि तुम पांडवों को उनका राज्य देकर उनसे मेल कर लो, परंतु यह कल्याण और हित की बात भी उसने किसी प्रकार स्वीकार नहीं की। जब तुमने कौरवों को पराजित करने का संकल्प किया, उसी समय वे पराजित हो गए । परंतु दुर्योधन तुम लोगों पर क्षणभर के लिए किंचितमात्र भी संतुष्ट नहीं है। मुझे वहाँ जाकर सबसे पहले धर्मराज की आज्ञा के अनुसार संधि के लिए सब प्रकार से प्रयत्न करना है । यदि यह सफल न हुआ तो फिर मुझे यह विचार करना होगा कि दुरात्मा दुर्योधन को उसके पापकर्म का दंड कैसे दिया जाये ?

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में श्रीकृष्ण वाक्य विषयक उन्नासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।