महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 83 श्लोक 18-40
त्र्यशीति (83) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
उसमें सब प्रकार की आवश्यक सामग्री सुंदर ढंग से रखी गयी थी । उस पर व्याघ्रचर्म का आवरण ( पर्दा ) शोभा पाता था । वह रथ शत्रुओं के लिए दुर्धर्ष तथा उनके सुयश का नाश करने वाला था । साथ ही उससे यदुवंशियों के आनंद में वृद्धि होती थी । श्रीकृष्ण के सेवकों ने शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नाम वाले चारों घोड़ों को नहला- धुलाकर सब प्रकार के बहुमूल्य आभूषणों द्वारा सुसज्जित करके उस रथ में जोत दिया ।इस प्रकार वह रथ श्रीकृष्ण की महत्ता को और अधिक बढ़ाता हुआ गरुड़ चिन्हित ध्वज से संयुक्त हो बड़ी शोभा पा रहा था । चलते समय उसके पहियों से गंभीर ध्वनि होती थी ।मेरुपर्वत के शिखरों की भांति सुनहरी प्रभा से सुशोभित तथा मेघ और दुंदुभियों के समान गंभीर नाद करने वाले उस रथ पर, जो इच्छानुसार चलने वाले विमान के समान प्रतीत होता था, भगवान श्रीकृष्ण आरूढ़ हुए । तदनंतर सात्यिकी को भी उस रथ पर बैठाकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने रथ की गंभीर ध्वनि से पृथ्वी और आकाश को गुंजाते हुए वहाँ से प्रस्थान किया।तत्पश्चात उस समय क्षण भर में ही आकाश में घिरे हुए बादल छिन्न-भिन्न हो अदृश्य हो गए । शीतल, सुखद एवं अनुकूल वायु चलने लगी तथा धूल का उड़ना बंद हो गया । वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण की उस यात्रा के समय मंगल सूचक मृग और पक्षी उनके दाहिने तथा अनुकूल दिशा में जाते हुए उनका अनुसरण करने लगे ।सारस, शतपत्र तथा हंस पक्षी सब ओर से मंगलसूचक शब्द करते हुए मधुसूदन श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे जाने लगे । मंत्र पाठपूर्वक दी जाने वाली आहुतियों से युक्त बड़े-बड़े होमयज्ञों द्वारा हविष्य पाकर अग्निदेव प्रदक्षिणा क्रम से उठने-वाली लपटों के साथ प्रज्वलित हो धुमरहित हो गए । वशिष्ठ, वामदेव, भूरीद्युम्न, गय, क्रथ, शुक्र, नारद, वाल्मीकि, मरुत्त, कुशिक तथा भृगु आदि देवर्षियों तथा ब्रह्मर्षियों ने एक साथ आकार यदुकुल को सुख देने वाले इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण की दक्षिणावर्त परिक्रमा की । इस प्रकार इन महाभाग महर्षियों तथा साधु-महात्माओं से सम्मानित हो श्रीकृष्ण ने कुरुकुल की राजधानी हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया ।क्षत्रियशिरोमणे ! श्रीकृष्ण के जाते समय उन्हें पहुंचाने के लिए कुंतीपुत्र युधिष्ठिर उनके पीछे-पीछे चले । साथ ही भीमसेन, अर्जुन, माद्री की दोनों पुत्र पांडुकुमार नकुल-सहदेव, पराक्रमी चेकितान, चेदिराज़ धृष्टकेतू, द्रुपद, काशीराज, महारथी शिखंडी, धृष्टद्युमन, पुत्रों और केकयों सहित राजा विराट– ये सभी क्षत्रिय अभीष्ट कार्य की सिद्धि एवं शिष्टाचार का पालन करने के लिए उनके पीछे गए ।इस प्रकार गोविंद के पीछे कुछ दूर जाकर तेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर ने राजाओं के समीप उनसे कुछ कहने का विचार किया ।जो कभी कामना से, भय से, लोभ से अथवा अन्य किसी प्रयोजन के कारण भी अन्याय का अनुसरण नहीं कर सकते, जिनकी बुद्धि स्थिर है, जो लोभरहित, धर्मज्ञ, धैर्यवान, विद्वान तथा सम्पूर्ण भूतों के भीतर विराजमान हैं, वे भगवान केशव देवताओं के भी देवता, सनातन परमेश्वर तथा समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं । उन्हीं सर्वगुणसंपन्न श्रीवत्सचिन्ह से विभूषित भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से लगाकर कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने निम्नांकित संदेश देना आरंभ किया । युधिष्ठिर बोले– शत्रुओं का संहार करने वाले जनार्दन ! अबला होकर भी जिसने बाल्यकाल से ही हमें पाल-पोसकर बड़ा किया है, उपवास और तपस्या में संलग्न रहना जिसका स्वभाव बन गया है, जो सदा कल्याण साधन में ही लगी रहती है, देवताओं और अतिथियों की पूजा में तथा गुरुजनों की सेवा-सुश्रुशा में जिसका अटूट अनुराग है, जो पुत्रवत्सला एवं पुत्रों को प्यार करने वाली है, जिसके प्रति हम पाँच भाइयों का अत्यंत प्रेम है, जिसने दुर्योधन के भय से हमारी रक्षा की है, जैसे नौका मनुष्य को समुद्र में डूबने से बचाती है, उसी प्रकार जिसने मृत्यु के महान संकट से हमारा उद्धार किया है और माधव ! जिसने हम लोगों के कारण सदा दुःख की भोगे हैं, उस दुःख न भोगने योग्य हमारी माता कुंती से मिलकर आप उसका कुशल समाचार अवश्य पूछें ।
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