महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 94 श्लोक 37-54
चतुर्नवतितम (94) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
महाराज धृतराष्ट्र के उठने पर वहाँ चारों ओर बैठे हुए सहसत्रों नरेश उठकर खड़े हो गए। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के लिए सुवर्णभूषित सर्वतोभद्र नामक सिंहासन रखा गया था। उस समय धर्मात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए राजा धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा अवस्था के अनुसार अन्य राजाओं से भी वार्तालाप किया। वहाँ सभा में पधारे हुए भगवान श्रीकृष्ण का भूमंडल के राजाओं तथा सभी कौरवों ने भलीभाँति पूजन किया। राजाओं के बीच में खड़े हुए शत्रुनगरविजयी परंतप श्रीकृष्ण ने देखा कि आकाश में कुछ ऋषि-मुनि खड़े हैं । उन नारद आदि महर्षियों को देखकर श्रीकृष्ण ने धीरे से शांतनुनन्दन भीष्म से कहा – 'नरेश्वर ! इस राजसभा को देखने के लिए ऋषिगण पधारे हैं 'इन्हें अत्यंत सत्कारपूर्वक आसन देकर निमंत्रित किया जाये, क्योंकि इनके बैठे बिना कोई भी बैठ नहीं सकता। 'पवित्र अंत:करण वाले इन मुनियों की शीघ्र पूजा की जानी चाहिए ।' शांतनुनन्दन भीष्म ने मुनियों को देखकर सभाद्वार पर स्थित हुए राजकर्मचारियों को बड़ी उतावली के साथ आज्ञा दी – 'अरे ! आसन लाओ'। तब सेवकों ने इधर उधर से मणि एवं सुवर्ण जड़े हुए शुद्ध, विशाल एवं विस्तृत आसन लाकर रख दिये। भारत ! अर्ध्य ग्रहण करके जब ऋषिलोग उन आसनों पर बैठ गए, तब भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य राजाओं ने भी अपना-अपना आसन ग्रहण किया। दु:शासन ने सात्यकी को उत्तम आसन दिया एवं विविंशति ने कृतवर्मा को स्वर्णमय आसन प्रदान किया। अमर्ष में भरे हुए महामना कर्ण और दुर्योधन दोनों एक आसन पर श्रीकृष्ण के पास ही बैठे थे। जनमजेय ! गांधारदेशीय सैनिकों से सुरक्षित पुत्र सहित गांधारराज शकुनि भी एक आसन पर बैठा था। परम बुद्धिमान विदुर भगवान श्रीकृष्ण के आसन को स्पर्श करते हुए एक मणिमय चौकी पर, जिसके ऊपर श्वेत रंग का स्पृहणीय मृगचर्म बिछाया गया था, बैठे थे। सब राजा दीर्घकाल के पश्चात दशार्हकुलभूषण भगवान जनार्दन को देखकर उन्हीं की ओर एकटक दृष्टि लगाए रहे, मानो अमृत पी रहे हों। इस प्रकार उन्हें तृप्ति ही नहीं होती थी। अलसी के फूलों की भाँति मनोहर श्याम कांतीवाले पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण उस सभा के मध्यभाग में स्वर्णपात्र में रखी हुई नीलमणि के समान शोभा पा रहे थे। उस समय वहाँ सबका मन भगवान गोविंद में ही लगा हुआ था । अत: सभी चुपचाप बैठे थे । कोई मनुष्य कहीं कुछ भी नहीं बोल रहा था।
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