महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 96 श्लोक 35-51
षण्णवतितम (96) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
'राजन् ! आज से फिर कभी घमंड में आकर अपने से बड़े या छोटे किन्हीं राजाओं पर किसी प्रकार भी आक्षेप न करना । इस बात के लिए मैंने तुम्हें सावधान कर दिया। 'भूपाल ! तुम विनीतबुद्धि, लोभशून्य, अहंकार रहित, मनस्वी, जितेंद्रिय, क्षमाशील, कोमलस्वभाव और सौम्य होकर प्रजा का पालन करो । फिर कभी दूसरों के बलाबल को जाने बिना किसी पर आक्षेप न करना । 'मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी, तुम्हारा कल्याण हो, जाओ । फिर ऐसा बर्ताव न करना । विशेषत: हम दोनों के कहने से तुम ब्राह्मणों से उनका कुशल-समाचार पूछते रहना'। तदनंतर राजा दम्भोभ्दव उन दोनों महात्माओं के चरणों में प्रणाम करके अपनी राजधानी में लौट आए और विशेष रूप से धर्म का आचरण करने लगे। इस प्रकार पूर्वकाल में महात्मा नर ने वह महान् कर्म किया था । उनसे भी बहुत गुणों के कारण भगवान नारायण श्रेष्ठ हैं। अत: राजन् ! जब तक श्रेष्ठ धनुष गाँडीव पर (दिव्य) अस्त्रों का संधान नहीं किया जाता, तब तक ही तुम अभिमान छोड़कर अर्जुन से मिल जाओ। काकुदिक ( प्रस्वापन ), शुक ( मोहन ), नाक ( उन्मादन ), अक्षिसंतर्जन ( त्रासन ), संतान ( दैवत ), नर्तक ( पैशाच ), घोर ( राक्षस ) और आस्यमोदक ( याम्य )* - ये आठ प्रकार के अस्त्र हैं। इन अस्त्रों से विद्ध होने पर सभी मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं । काम। क्रोध, मोह, मद, मान, मात्सर्य और अहंकार – ये क्रमश: आठ दोष बताए गए हैं, जिनके प्रतीकस्वरूप उपयुर्क्त आठ अस्त्र हैं । इन अस्त्रों के प्रयोग से कुछ लोग उन्मत्त हो जाते हैं और वैसी ही चेष्टाएँ करने लगते हैं । कितनों को सुध-बुध नहीं रह जाती, वे अचेत हो जाते हैं । कई मनुष्य सोने लगते हैं । कुछ उछलते - कूदते और छींकते हैं । कितने ही मल-मूत्र करने लग जाते हैं और कुछ लोग निरंतर रोते-हँसते रहते हैं। राजन् ! सम्पूर्ण लोकों का निर्माण करनेवाले ईश्वर एवं सब कर्मों के ज्ञाता नारायन जिनके बंधु ( सहायक ) हैं, वे नरस्वरूप अर्जुन युद्ध में दु:सह हैं ( क्योंकि उन्हें उपर्युक्त सभी अस्त्रों का अच्छा ज्ञान है ) भारत ! युद्धभूमि में जिनकी समानता कोई भी नहीं कर सकता, उन विजयशील वीर कपिध्वज अर्जुन को जीतने का साहस तीनों लोकों में कौन कर सकता है ? महाराज ! अर्जुन में असंख्य गुण हैं एवं भगवान जनार्दन तो उनसे भी बढ़कर हैं । तुम भी कुंतीपुत्र अर्जुन को अच्छी तरह जानते हो । जो दोनों महात्मा नर और नारायण के नाम से प्रसिद्ध हैं , वे ही अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं । तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि वे दोनों पुरुषरत्न सर्वश्रेष्ठ वीर हैं । भारत ! यदि तुम इस बात को इस रूप में जानते हो और मुझ पर तुम्हें तनिक भी संदेह नहीं है तो मेरे कहने से श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय लेकर पांडवों के साथ संधि कर लो । भरतश्रेष्ठ ! यदि तुम्हारी यह इच्छा हो कि हम लोगों में फूट न हो और इसी में तुम अपना कल्याण समझो, तब तो संधि करके शांत हो जाओ और युद्ध में मन न लगाओ। कुरुश्रेष्ठ ! तुम्हारा कुल इस पृथ्वी पर बहुत प्रतिष्ठित है । वह उसी प्रकार सम्मानित बना रहे और तुम्हारा कल्याण हो, इसके लिए अपने वास्तविक स्वार्थ का ही चिंतन करो ।
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