महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-22
पञ्चदश (15) अध्याय: कर्ण पर्व
अश्वत्थामा और भीमसेन का अद्भुत युद्ध तथा दोनों का मूर्छित हो जाना
संजय कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने बड़ी उतावली के साथ अस्त्र चलाने में अपनी फर्ती दिखाते हुए एक बाण भीमसेन को बींध डाला। फिर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले कुशल योद्धा के समान मर्मज्ञ अश्वत्थामा ने भीमसेन के सारे मर्मस्थलों को लक्ष्य करके पुनः उनपर नब्बे तीखे बाणों का प्रहार किया। राजन् ! अश्वत्थामा के तीखे बाणों से समरांगण में आच्छादित हुए भीमसेन किरणों वाले सूर्य के समान सुशोभित होने लगे। तदनन्तर पाण्डुपुत्र भीम ने ने अच्छी तरह चलाये हुए एक हजार बाणों से द्रोणपुत्र को आच्छादित करके घोर सिंहनाद किया। राजन् ! अश्वत्थामा ने अपने बाणों से भीमसेन के बाणों का निवारण करके युद्धस्थल में उन पाण्डुपुत्र के ललाट में मुस्कराते हुए से एक नाराच का प्रहार किया। नरेश्वर ! जैसे वन में बलोन्मत्त गेंडा सींग धारण करता है, उसी प्रकार पाण्डुपुत्र भीम ने अपने ललाट में धंसे हुए उस बाण को धारण कर रक्खा था। तत्पश्चात् पराक्रमी भीमसेन ने रणभूमि में विजय के लिए प्रयत्नशील अश्वत्थामा के ललाट में भी मुस्कराते हुए तीन नाराचों का प्रहार किया। ललाट में धंसे हुए उन तीनों बाणों द्वारा वह ब्राह्मण वर्षाकाल में भीगे हुए तीन शिखरों वाले उत्तम पर्वत के समान अद्भुत शोभा पाने लगा। तब अश्वत्थामा ने सैंकड़ों बाणों से पाण्डुपुत्र भीमसेन को पीडि़त कियाः परन्तु जैसे हवा पर्वत को नहीं हिला सकती उसी प्रकार वह उन्हें कम्पित न कर सका। इसी प्रकार हर्ष और उत्साह में भरे हुए पाण्डुपुत्र भीमसेन भी युद्ध में सैंकड़ों तीखे बाणों का प्रहार करके द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को विचलित न कर सके। ठीक उसी तरह,जैसे जल का महान् प्रवाह किसी पर्वत को हिला-डुला नहीं सकता। वे दोनों बलोत्मत्त महारथी वीर श्रेष्ठ रथों पर बैठकर एक दूसरे को भयंकर बाणों द्वारा आच्छादित करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। जैसे सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिए उगे हुए दो तेजस्वी सूर्य अपनी किरणों द्वारा परस्पर साथ दे रहे हों,उसी प्रकार वे दोनों वीर अपने उत्तम बाणों द्वारा एक दूसरे को संतप्त कर रहे थे। उस महासमर में बदला लेने का यत्न करते हुए वे दोनों योद्धा निर्भय से होकर अपने बाण समूहों द्वारा परस्पर अस्त्रों के घात-प्रतिघात के लिए प्रयत्नशील थे। वे दोनों नरश्रेष्ठ संग्रामभूमि में दो व्याघ्रो के समान विचर रहे थे, धनुष ही उन व्याघ्रो के मुख और बाण ही उनकी दाढ़ें थी। वे दोनों ही दुर्धर्ष एवं भयंकर प्रतीत होते थे। आकाश में मेघों की घटा से आच्छादित हुए चन्द्रमा और सूर्य के समान वे दोनों वीर सब ओर से बाण समूहों द्वारा ढक का अदृश्य हो गये थे। फिर दो ही घड़ी में मेघों के आवरण से मुक्त हुए मंगल और बुध नामक ग्रहों के समान वे दोनों शत्रुदमन वीर एक दूसरे के बाणों को नष्ट करके प्रकाशित होने लगे। इस प्रकार चलने वाले उस भयंकर संग्राम में वहीं द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भीमसेन को अपने दाहिने भाग में कर दिया। फिर जैसे मेघ जल की धाराओं से पर्वत को ढक सा देता है, उसी प्रकार भयंकर एवं सैंकड़ों बाणों द्वारा वह भीमसेन को आच्छादित करने लगा; परंतु भीमसेन शत्रु के इस विजय सूचक लक्षण को सहन न कर सके। राजन् ! पाण्डुपुत्र भीम ने भी गत-प्रत्यागत आदि मण्डल भागों ( विभिन्न पैंतरों ) में अश्वत्थामा को दाहिने करके बदला चुका लिया। उन दोनों पुरुषसिंहों में मण्डलाकार घूमकर भाँति-भाँति के पैंतरे दिखाते हुए भयंकर युद्ध होने लगा। वे कान तक खींचकर छोड़े हुएबाणों से परस्पर चोट पहुँचाने और एक दूसरे के वध के लिए भारी यत्न करने लगे। दोनों ही युद्धस्थल में एक दूसरे को रथहीन कर देने की इच्छा करने लगे। तदनन्तर महारथी अश्वत्थामा ने बड़े-बड़े अस्त्र प्रकट किये; परंतु पाण्डुपुत्र भीमसेन ने समरांगण में अपने अस्त्रों द्वारा ही उन सबको नष्ट कर दिया।
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