महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 24 श्लोक 41-60

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चतुर्विंश (24) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद

प्रजापालक नरेश ! घोड़े,रथ और कवच के नष्ट हो जाने पर नकुल तुरंत उस रथ से उतर कर हाथ में परिघ लिये खड़े हो गये। राजन् उनके उठे हुए उस माभयंकर परिघ को सूतपुत्र ने अत्यन्त तीखे तथा दुष्कर कार्य को सिद्ध करने वाले बाणों द्वारा काट डाला। उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से हीन देखकर कर्ण ने झुकी हुई गँाठ वाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा और भी घायल कर दिया;परंतु उन्हें घातक पीड़ा नहीं दी। अत्यन्त बलवान् तथा अस्त्रविद्या के विद्वान् कर्ण के द्वारा समरांगण में आहत हो सहसा नकुल भाग चले। उस समय उनकी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं। भारत ! राधापुत्र कर्ण ने बारंबार हँसते हुए उनका पीछा करके उनके गले में प्रत्यन्चा सहित अपना धनुष डाल दिया। राजन ! कण्ड में पड़े हुए उस महाधनुष से युक्त नकुल ऐसी शोभा पाने लगे,मानो आकाश में चन्द्रमा पर घेरा पड़ गया हो अथवा कोई श्याम मेघ इन्द्रधनुष से सुशोभित हो रहा हो। उस समय कर्ण ने नकुल से कहा- ‘पाण्डु कुमार ! तुमने व्यर्थ ही बढ़-बढ़कर बातें बनायीं थीं। अब इस समय बारंबार मेरे बाणों की मार खाकर पुनःउसी हर्ष के साथ तुम वैसी ही बातें करो तो सही। बलवान् कौरव-योद्धाओं के साथ आज से युद्ध न करना। तात ! जो तुम्हारे समान हों,उन्हीं के साथ युद्ध किया करो। माद्री कुमार ! लज्जित न होओ। इच्छा हो तो घर चले जाओ अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हों,वहीं भाग जाओ। ‘महाराज ! ऐसा कहकर उस समय कर्ण ने नकुल को छोड़ दिया। राजन् ! यद्यपि नकुल वध के योग्य अवस्था में आ पहुँचे थे,तो भी कुन्ती को दिये हुए वचन को याद करके धर्मज्ञ वीर कर्ण ने उस समय उन्हें मारा नहीं,जीवित छोड़ दिया। नरेश्वा ! धनुर्धर सूतपुत्र के छोड़ देने पर पाण्डु कुमार नकुल लजाते हुए से वहाँ से युधिष्ठिर के रथ के पास चले गये। सूतपुत्र के द्वारा सताये हुए नकुल दुःख से संतप्त हो घड़े में बंद सर्प के समान दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए युधिष्ठिर के रथ पर चढ़ गये। इस प्रकार नकुल को पराजित करके कर्ण भी चन्द्रमा के समान श्वेत रंग वाले घोड़ों और ऊँची पताकाओं से युक्त रथ के द्वारा तुरंत ही पांचालों की ओर चला गया। प्रजानाथ ! कौरव-सेनापति कर्ण को पांचाल रथियों की ओर जाते देख पाण्डव-सैनिकों में महान् कोलाहल मच गया। महाराज ! दोपहर होते-होते शक्तिशाली सूत नन्दन कर्ण ने चक्र के समान चारों ओर विचरण करते हुए वहाँ पाण्डव-सैनिकों का महान् संहार मचा दिया। माननीय नरेश ! उस समय हम लोगों ने कितने ही रथियों को ऐसी अवस्था में देखा कि उनके रथ के पहिये टूट गये हैं,ध्वजा,पताकाएँ छिन्न-भिन्न हो गयी हैं,घोड़े और सारथि मारे गये हैं और उन रथों के धुरे भी खण्डित हो गये हैं। उस अवस्था में समूह-के-समूह पांचाल महारथी हमें भागते दिखाई दिये। बहुत से मतवाले हाथी वहाँ बड़ी घबराहट में पड़कर इधर-उधर चक्कर काट रहे थे,मानो किसी बडत्रे भारी जंगल में दावानल से उनके सारे अंग झुलस गये हों। कितने ही हाथियों के कुम्भ स्थल फट गये थे और वे खून से भीग गये थे। कितनों की सूँड़े कट गई थीं,कितनों के कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे,बहुतों की पूँछें कट गई थी और कितने ही हाथी महामना कर्ण की मार खाकर खण्डित हुए मेघों के समान पृथ्वी परगिर गये थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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