महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 19-40
चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: कर्ण पर्व
बड़े-बड़े नगरों में सुशोभित,पर्वत,वन और द्वीपों से युक्त,प्राणियों की आधारभूता पृथ्वी देवी को उस समय देवताओं ने रथ बनाया। मन्दराचल उस रथ का धुरा था,महानदी गंगा जंघा (धुरे का आश्रय) बनीं थीं,दिशाएँ और विदिशाएँ उस रथ का आवरण थीं। नक्षत्रों का समूह ईषादण्ड हुआ और कृतयुग ने जुए का रूप धारण किया। नागराज वासुकि उस रथ का कूबेर बन गये थे। हिमालय पर्वत अपस्कर (रथ के पीछे का काठ) और विन्ध्याचल ने उसके आधारकाष्ठ का रूप धारण किया। उदयाचल और अस्ताचल दोनों को उन श्रेष्ठ देवताओं ने पहियों का आधारभूत काष्ठ बनाया। दानवों के उत्तम निवास स्थान समुद्र को बन्धनरज्जु बनाया। सप्तर्षियों का समुदाय रथ का परिस्कर ( चक्ररक्षा आदि का साधन ) बन गया। गंगा,सरस्वती और सिंधु-इन तीनों नदियों के साथ आकाश त्रिवेणुकाष्ठयुक्त धुरे का भाग हुआ। उस रथ के बन्धन आदि की सामग्री जल तथा सम्पूर्ण नदियाँ थीं। दिन,रात,कला,काष्ठा और छहों ऋतुएँ उस रथ का अनुकर्ष ( नीचे का काष्ठ ) बन गयीं। चमकते हुए ग्रह और तोर वरूथ ( रथ की रक्षा के लिये आवरण ) हुए। त्रिवेणु-तुल्य धर्म,अर्थ और काम-तीनों को संयुक्त करके रथ की बैठक बनाया। फल और फूलों से युक्त औषधियों एवं लताओं को घण्टा का रूप दिया। उस श्रेष्ठ रथ में सूर्य और चन्द्रमा को दोनों पहिये बनाकर सुन्दर रात्रि और दिन को वहाँ पूर्वपक्ष और अपरपथ के रूप में प्रतिष्ठित किया। धृतराष्ट्र आदि दस नागराजों का भी ईषादण्ड में ही स्थान दिया। फुफकारते हुए बड़े-बड़े सर्पों को उस रथ के जात बनाये। द्युलोक को भी जए में ही स्थान दिया। प्रलस काल के मेघों को युगचर्म बनाया। कालपृष्ठ नहुष,कर्केाटक,धनंजय तथा दूसरे-दूसरे नाग घोड़ों के केसर बँाधने की रस्सी बनाये गये। दिशाओं और विदिशाओं ने रथ में जुते हुए घोड़ों की बागडोर का भी रूप धारण किया। संध्या,धृति,मेधा,स्थिति और सनतिसहित आकाश को,जो ग्रह,नक्षत्र और तारों से विचित्र शोभा धारण करता है, चर्म ( रथ का ऊपरी आवरण ) बनाया। इन्द्र,वरुण,यम और कुबेर-इन चार लोकपालकों को देवताओं ने उस रथ के घोड़े बनाये। सिनीवाली,अनमति,कुहू तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली राका इनकी अधिष्ठात्री देवियों को घोड़ों के जोते का रूप दिया और इनके अधिकारी देवताओं को घोड़ों की लगामों के काँटे बनाया। धर्म,सत्य,तप और अथ।-इनको वहाँ लगाम बनाया गया। रथ की आधारभूमि मन हुआ और सरस्वती देवी रथ के आगे बढ़ने का मार्ग थीं। नाना रंगों की विचित्र पताकाएँ पवन प्रेरित होकर फहरा रही थीं,जो बिजली और इन्द्रधनुष से बँधे हुए उस देदीप्यमान रथ की शोभा बढ़ाती थीं। घपट्कार घोड़ों का चाबुक हुआ और गायत्री उस रथ के ऊपरी भाग की बन्धन रज्जु बनीं। पूर्वकाल में जो महात्मा महादेवजी के यज्ञ में निर्मित हुआ था,वह संवत्सर ही उनके लिए धनुष बना और सावित्री उस धनुष की महान् टंकार करने वाली प्रत्यंचा बनी। महादेवजी के लिए एक दिव्य कवच तैयार किया गया,जो बहुमूल्य,रत्नभूषित,रजागुधरहित ( अथवा धूल रहित स्वच्छ ),अभेद्य तथा कालचक्र की पहुँच से परे था। कान्तिमान् कनकमय मेरु पर्वत रथ के ध्वज का दण्ड बना था। बिजलियों से विभूषित बादल ही पताकाओं का काम दे रहै थे,जो यजुर्वेदी ऋत्विजों के बीच में स्थित हुई अग्नियों के समान प्रकाशित हो रहै थे। मान्यवर ! वह रथ क्या था,सम्पूर्ण जगत् के तेज का पुंज एकत्र हो गया था। उसे निर्मित हुआ देख सम्पूर्ण देवता आश्चर्यचकित हो उठे। फिर उन्होंने महात्मा महादेव जी से निवेदन किया कि रथ तैयार है।
« पीछे | आगे » |