महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 37 श्लोक 18-31

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सप्तत्रिंश (37) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद

‘बहुत सोचने पर भी मैं कर्म-सम्बन्ध की अनित्यता के कारण इस लोक में किसी भी वस्तु को नित्य नहीं मानता। जब आचार्य द्रोण भी मार दिये गये,तब कौन संदेहरहित होकर आगामी सूर्योदय तक जीवित रहने का दृढ़ विश्वास कर सकता है ? ‘निश्चय ही अस्त्र, बल, पराक्रम, क्रिया,अच्छी नीति अथवा उत्तम आयुध आदि किसी मनुष्य को सुख पहुँचाने के लिये पर्यापत नहीं हैं;क्योंकि इन सब साधनो के होते हुए भी आचार्य को शत्रुओं ने युद्ध में मार डाला है। ‘अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी,विष्णु और इन्द्र के समान पराक्रमी तथा सदा बृहस्पति और शुक्राचार्य के समान नीतिमान् इल गुरुदेव को बचाने के लिये इनके दुःसह अस्त्र आदि पास न आ सके अर्थात् उनकी रक्षा नहीं कर सके।। ‘शल्य ! ( द्रोणाचार्य के मारे जाने पर ) जब सब ओर त्राहि-त्राहि की पुकार हो रही है,स्त्रियाँ और बच्चे बिलख-बिलख कर रो रहै हैं तथा दुर्योधन को मेरी सहायता की विशष आवश्यकता है। मैं अपने इस कर्तव्य को अच्छी तरह समझता हूँ। इसलिये तुम शत्रुओं की सेना की ओर चलो। ‘जहाँ सत्यप्रतिज्ञ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर खड़े हैं,जहाँ भीमसेन,अर्जुन,वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण,सात्यकि,सृंजय वीर तथा नकुल और सहदेव डटे हुए हैं,वहाँ मेरे सिवा दूसरा कौन उन वीरों का वेग सह सकता है ? ‘इसलिए मर्दराज ! तुम शीघ्र ही रणभूमि में पांचाल,पाण्डव तथा सृंजय वीरों की ओर रथ ले चलो। आज युद्ध स्थल में उन सबके सा भिड़कर या तो उन्हें ही मार डालूँगा या स्वयं ही द्रोणाचार्य के मार्ग से यमलोक चला जाऊँगा। ‘शल्य ! मैं उन शूरवीरों के बीच में नहीं जाऊँगा,ऐसा मुझे न समझो;क्योंकि संग्राम से पीछे हटने पर मित्रद्रोह होगा और यह मित्रद्रोह मेरे लिये असह्य है। इसलिए मैं प्राणों का परित्याग करके द्रोणाचार्य का ही अनुसरण करूँगा।। ‘विद्वान् हो या मूर्ख,आयु की समाप्ति होने पर सभी का यमराज के द्वारा यथायोग्य सत्कार होता है। उससें किसी को छुटकारा नहीं मिलता। अतः विद्वान् फ मैं कुनती के पुत्रों पर अवश्य चढ़ाई करूँगा। निश्चय की दैव के विधान को कोई पलट नहीं सकता। ‘धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन सदा ही मेरे कल्याण-साधन में तत्पर रहा है;अतः आज उसके मनारथ की सिद्धि के लिये मैं अपने प्रिय भोगों को और जिसे त्यागना अत्यन्त कठिन है,उस जीवन को भी त्याग दूँगा। ‘गुरुवर परशुरामजी ने मझे यह व्याघ्रचर्म से आच्छादित और उत्तम अश्वों से जुता हुआ श्रेष्ठ रथ प्रदान किया है। दसमें तीन सुवर्णमय कोष और रजतमय त्रिवेणु सुशोभित हैं। इसके धुरों और पहियों से कोई आवाज नहीं निकलती है।। ‘शल्य ! तत्पश्चात् उन्होंने भलीभँाति इस रथ का निरीक्षण करके बहुत-से विचित्र धनुष,भयंकर बाण,ध्वज,गदा,खंग,चमचमाते हुए उत्त्म आयुध तथा गम्भीर ध्वनि से युक्त भयंकर श्वेत शंख भी दिये थे। ‘यह रथ सब रथों से उत्तम है। इसमें पताकाएँ फहरा रही हैं,सफेद घोड़े जुते हुए हैं और सुन्दर तरकस इसकी शोभा बढ़ाते हैं। चलते समय इस रथ की धमक से वज्रपात के समान शब्द होता है। मैं इस रथ पर बैठकर रणभूमि में अर्जुन को बलपूर्वक मार डालूँगा। ‘यदि सबका संहार करने वाली मृत्यु सदा सावधान रहकर समरांगण में पाण्डुपुत्र अर्जुन की रक्षा करे तो रणक्षेत्र में उससे भी भिड़कर या तो मै उसे ही मार डालूँगा या स्वयं ही भीष्म के सम्मुख यमलोक को चला जाऊँगा। ‘अधिक कहने से क्या लाभ ? यदि इस महासागर में अपने गणोसहित यम,वरूण,कुबेर और इन्द्र भी एक साथ आकर यहाँ पाण्डुपुत्र अर्जुन की रक्षा करना चाहैं तो मैं उन सबके साथ ही उन्हे जीत लूँगा ‘।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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