महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-19
चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: कर्ण पर्व
कर्ण के द्वारा मद्र ओद बाहीक देश वासियों की निन्दा
शल्य बोले-कर्ण ! तुम दूसरों के प्रति जो आक्षेप करते हो,ये तुम्हारे प्रलाप मात्र हैं। तुम जैसे हजारों कर्ण न रहैं तो भी युद्ध स्थल में शत्रुओं पर कवजय पायी जा सकती है।
संजय कहते हैं-राजन् ! ऐसी कठोर बात बोलते हुए तद्रराज शल्य से कर्ण ने पुनः दूनी कठोरता लिये अप्रिय वचन कहना आरम्भ किया। कर्ण कहते हैं-मद्र नरेश ! तुम एकाग्रचित होकर मेरी ये बातें सुनो। राजा धृतराष्ट्र के समीप कही जाती हुई इन सब बातों को मैंने सुना था। एक दिन महाराज धृतराष्ट्र के घर में बहुत से ब्राह्मण आ-आकर नाना प्रकार के विचित्र देशों तथा पूर्ववर्ती भूपालों के वृतान्त सुना रहे थे। वहीं किसी वृद्ध एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण ने बहीक और मद्र देश की निनदा करते हुए वहाँ की पूर्व घटित बातें कही थीं-। जो प्रदेश हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर हैं तथा जो सतलज,व्यास,रावी,चिनाब,और झेलम-इन पाँचों उवं सिंधु नदीके बीच में स्थित है,उन्हें बाहीक कहते हैं। उन्हें त्याग देना चाहिये। गोवर्द्धन नोक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा-ये दोनों वहाँ के राजभवन के द्वार पर स्थित हैं,जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता हूँ। मैं अत्यन्त गुपत कार्य वश कुछ दिनों तक बाहीक देश में रहा था। इससे वहाँ के निवासियों के सम्पर्क में आकर मैंने उनके आचार-व्यवहार की बहुत सी बातें जान ली थीं। वहाँ शकल नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है,जहाँ जर्तिक नाम वाले बाहीक निवास करते हैं। उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है। वे भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं। पूआ,मांस और वाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार शून्य हैं। वहाँ की स्त्रियाँ बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करके मतवाली तथा नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदिवारियों के पास गाती और नाचती हैं। वे गदहों के रेंकने और ऊँटों के बलबलाने की सी आवाज से मतवाले पन में ही भाँति-भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन-काल में भी परदे के भीतर नहीं रहती हैं। वे सब-के-सब सर्वथा स्वेच्छाचारिणी होती हैं। मद से उन्त्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वे उक दूसरे कोओ घायल की हुई ! ओ किसी की मारी हुई ! है पतिमर्दिते !इत्यादि कहकर पुकारती और नुत्य करती हैं। पर्वों और त्यौहारों के अवसर पर तो उन संस्कारहीन रमणीयों के संयम का बँाध और भी टूट जाता है। डनहीं बाहीक देशी मदमत्त एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई सम्बन्धी वहाँ से आकर कुरुजांगल प्रदेश में निवास करता था। वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था-। निश्चय ही वह लंबी,गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ बाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी।। में कब सतलज और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुँचकर शंख की बनी हुई मोटी-मोटी चूडि़यों को धारण करने वाली वहाँ की सुनछरी स्त्रियों को देखूँगा।जिनके नेत्रों के प्रान्त भाग मैनसिल के आलेप से उज्ज्वल हैं,दोनों नेत्र और ललारट अंलन सुशोभित हैं तथा जिनके सारे अंग कम्बल और मुगचर्म से आवृत हैं,वे गोरे रंगवाली प्रियदर्शना (परम सुनदरी) रमणियाँ मुदंग,ढोल,शंख और मर्दल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ-साथ कब नृत्य करती दिखायी देंगी।
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