महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 58 श्लोक 24-52

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अष्‍टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: अष्‍टपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 24--52 का हिन्दी अनुवाद

भरतश्रेष्ठ। जिनकी गर्दन कट गयी है, विभिन्न अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं तथा जो खून से लथपथ होकर लाल दिखायी देते हैं, उन कबन्धों (धड़ों) से रणभूमि ऐसी जान पड़ती हैं, मानो वहां जगह-जगह बुझी हुई लपटों वाले आग के अंगारे पड़े हों। ‘देखो, जिनमें सोने की छोटी-छोटी घंटियां लगी हैं, ऐसे बहुत-से सुन्दंर रथ टुकड़े-टुकड़े होकर पड़े हैं। वे बाणों से घायल हुए घोड़े भरे पड़े हैं और उनकी आंतें बाहर निकल आयी हैं। ‘अनुकर्ष, उपासग, पताका, नाना प्रकार के ध्वेज तथा रथियों के बड़े-बड़े श्वे त शंख बिखरे पड़े हैं। ‘जिनकी जीभें बाहर निकल आयी हैं, ऐसे अगणित पर्वताकार हाथी धरती पर सदा के लिये सो गये हैं। विचित्र वैजयन्ती पताकांए खण्डित होकर पड़ी हैं तथा हाथी और घोड़े मारे गये हैं। ‘हाथियों के विचित्र झूल, मृगचर्म और कम्बाल चिथड़े चिथड़े होकर गिरे हैं। चांदी के तारों से चित्रित झूल, अंकुश और अनेक टुकड़ों में बंटे हुए बहुत से घंटे महान् गजराजों के साथ ही धरती पर गिरे पड़े हैं। ‘जिनमें वैदूर्यमणि के डंडे लगे हुए हैं, ऐसे बहुत से सुन्दबर अंकुश पृथ्वी पर पड़े हैं। सवारों के हाथों में सटे हुए कितने ही सुवर्णनिर्मित कोड़े कटकर गिरे हैं। ‘विचित्र मणियों से जटित और सोने के तारों से विभूषित रकुमृग के चमड़े के बने हुए, घोड़ों की पीठ पर बिछाये जाने वाले बहुत से झूल भूमि पर पड़े हैं।
‘नरपतियों के मणिमय मुकुट, विचित्र स्वसर्णमय हार, छत्र, चंवर और व्यकजन फेंके पड़े हैं। ‘देखो, चन्द्र मा और नक्षत्रों के समान कान्तिमान्, मनोहर कुण्डरलों से विभूषित तथा दाढ़ी-मूंछ से युक्त वीरों के आभूषण-भूषित मुखों से रणभूमि अत्य न्तम आच्छा दित हो गयी है और इस पर रक्त की कीच जम गयी है। ‘प्रजापालक अर्जुन। उन दूसरे योद्धाओं पर दृष्टिपात करो, जिनके प्राण अभी तक शेष हैं और जो चारों ओर कराह रहे हैं। उनके बहुसंख्याक कुटुम्बीो जन हथियार डालकर उनके निकट आ बैठे हैं और बारंबार रो रहे हैं। ‘जिनके प्राण निकल गये हैं, उन योद्धाओं को वस्त्र् आदि से ढककर विजयाभिलाषी वेगशाली वीर पुन: अत्य।न्तज क्रोधपूर्वक युद्ध के लिये जा रहे हैं। ‘दूसरे बहुत से सैनिक रणभूमि में गिरे हुए अपने शूरवीर कुटुम्बी‍ जनों के पानी मांगने पर वहीं इधर-उधर दौड़ रहे हैं। ‘अर्जुन। कितने ही योद्धा पानी लाने के लिये गये, इसी बीच में पानी चाहने वाले बहुत से वीरों के प्राण निकल गये। वे शूरवीर जब पानी लेकर लौटे हैं, तब अपने उन सम्बान्धियों को चेतनारहित देखकर पानी को वहीं फेंक परस्पटर चीखते-चिल्लाेते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं। ‘श्रेष्ठ वीर अर्जुन। उधर देखो, कुछ लोग पानी पीकर मर गये और कुछ पीते-पीते ही अपने प्राण खो बैठे। कितने ही बान्धीवजनों के प्रेमी प्रिय बान्ध,वों को छोड़कर उस महासमर में जहां-तहां प्राण शून्यक हुए दिखायी देते हैं। ‘नरश्रेष्ठद। उन दूसरे योद्धाओं को देखा, जो दांतों से औठ चबाते हुए टेढ़ी भौंहों से युक्त मुखों द्वारा चारों ओर दृ‍ष्टिपात कर रहे हैं। इस प्रकार बातें करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन उस महासमर में राजा का दर्शन करने के लिये उस स्थाठन की ओर चल दिये, जहां राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णठ से बारंबार कहते थे, चलिये, चलिये’। भगवान् श्रीकृष्ण बड़ी उतावली के साथ अर्जुन को युद्धभूमि का दर्शन कराते हुए आगे बढ़े और धीरे-धीरे उनसे इस प्रकार बोले-‘पाण्डुूनन्द न। देखो, राजा के पास बहुत से भूपाल जा पहुंचे हैं। ‘उधर दृष्टिपात करो। कर्ण युद्ध के महान् रंगमच पर प्रज्वलित अग्रि के समान प्रकाशित हो रहा है और महाधनुर्धर भीमसेन युद्धस्थल की ओर लौट पड़े हैं। ‘पाच्चालों, सृज्जयों और पाण्डवों के जो धृष्टद्युम्नद आदि प्रमुख वीर हैं, वे भी भीमसेन के साथ ही युद्ध के लिये लौट रहे हैं।
‘अर्जुन। वह देखो, लौटे हुए पाण्डैव योद्धाओं ने शत्रुओं की विशाल वाहिनी के पावं उखाड़ दिये। भागते हुए कौरव वीरों को यह कर्ण रोक रहा है। ‘कुरुनन्दीन। जो वेग में यमराज और पराक्रमी में इन्द्रं के समान है, वह शस्त्रओ-धारियों में श्रेष्ठय अश्वत्था्मा उधर ही जा रहा है। ‘महारथी धृष्टद्युम्न युद्धस्थ ल में बड़े वेग से जाते हुए अश्वत्थायमा ही पीछा कर रहे हैं। वह देखो, संग्राम में बहुत से सृंजय वीर मार डाले गये’। राजन्। अत्यन्त दुर्जय वीर भगवान् दुर्जय वीर भगवान् श्रीकृष्णस किरीट धारी अर्जुन से ये सारी बातें बतायीं। तत्पशश्चात् वहां अत्यनन्तत भयंकर महायुद्ध होने लगा। नरेश्वर। दोनों सेनाओं में मृत्यु् को ही युद्ध से निवृत्त होने की अवधि नियत करके संघर्ष छिड़ गया और वीरों के सिंहनाद होने लगे। पृथ्वीनाथ। इस प्रकार इस भूतल पर आपकी और शत्रुओं की सेनाओं का महान् संहार हुआ है। राजन्। यह सब आपकी कुमन्त्रलणा का ही फल है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में भगवान् श्रीकृष्ण का वाक्य विषयक अट्ठावनवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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