महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 70 श्लोक 22-34
सप्ततितम (70) अध्याय: कर्ण पर्व
संजय उवाच संजय कहते है- राजन्। सव्यसाची अर्जुन धर्मवीर हैं। उनकी बुद्धि स्थिर है तथा वे उत्तम ज्ञान से सम्पन्न हैं।उस समय राजा युधिष्ठिर को वैसी रुखी और कठोर बातें सुनाकर वे ऐसे अनमने और उदास हो गये, मानो कोई पातक करके इस प्रकार पछता रहे हों । देवराजकुमार अर्जुन को उस समय बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने लंबी सांस खींचते हुए फिर से तलवार खींच ली। यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-‘अर्जुन। यह क्या तुम आकाश के समान निर्मल इस तलवार को पुन: क्यों ध्यान से बाहर निकाल रहे हो तुम मुझे मेरी बात का उत्तर दो। मैं तुम्हारा अभीष्ट अर्थ सिद्ध करने के लिये पुन: कोई योग्य उपाय बताऊंगा' । पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार पूछने पर अर्जुन अत्यन्त दुखी हो उनसे इस प्रकार बोले-'भगवन्। मैंने जिसके द्वारा हठपूर्वक भाई का अपमानरुप अहितकर कार्य कर डाला है, अपने उस शरीर को ही अब नष्ट कर डालूंगा । अर्जुन का यह वचन सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-'पार्थ। राजा युधिष्ठिर को 'तू' ऐसा कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये शत्रुसूदन। क्या तुम आत्मघात करना चाहते हो किरीटधारी वीर। साधुपुरुषों ने कभी ऐसा कार्य नहीं किया है । 'नरवीर। यदि आज धर्म से डरकर तुमने अपने बड़े भाई इन धर्मात्मा युधिष्ठिर को तलवार से मार डाला होता तो तुम्हारी कैसी दशा होती और इसके बाद तुम क्या करते । 'कुन्तीनन्दन। धर्म का स्वरुप सूक्ष्म है। उसको जानना या समझना बहुत कठिन है। विशेषत: अज्ञानी पुरुषों के लिये तो उसका जानना और भी मुशिकल है। अब मैं जो कुछ कहता हूं, उसे ध्यान देकर सुनो, भाई का वध करने से जिस अत्यन्त घोर नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें स्वयं ही अपनी हत्या करने से प्राप्त हो सकता है । 'अत: पार्थ। अब तुम यहां अपनी ही वाणी द्वारा अपने गुणों का वर्णन करो। ऐसा करने से यह मान लिया जायगा कि तुमने अपने ही हाथों अपना वध कर लिया। सुनकर अर्जुन ने उनकी बात का अभिनन्दन करते हुए कहा-'श्रीकृष्ण । ऐसा ही हो'। फिर इन्द्रकुमार अर्जुन अपने धनुष को नवाकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले-'राजन्। सुनिये । 'नरदेव। पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है। उन महात्मा महेश्वर ने मेरी वीरता का अनुमोदन किया है। मैं चाहूं तो क्षणभर में चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण जगत् को नष्ट कर डालूं । 'राजन्। मैंने सम्पूर्ण दिशाओं और दिक्पालों को जीतकर आपके अधीन कर दिया था। पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्त राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान तथा आपकी दिव्य सभा का निर्माण मेरे ही बल से सम्भव हुआ है ।‘मेरी ही हाथ में तीखे तीर और बाण तथा प्रत्यच्चासहित विशाल धनुष है। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्र हैं। मेरे-जैसा वीर यदि युद्धभूमि में पहुंच जाय तो उसे शत्रु जीत नहीं सकते । मेरे द्वारा उत्तर दिशा के वीर मारे गये, पश्चिम के योद्धाओं का संहार हो गया, पूर्वदेश के क्षत्रिय नष्ट हो गये और दक्षिणदेशीय योद्धा काट डाले गये। संशप्तकों का भी थोड़ा सा ही भाग शेष रह गया है। मैंने सारी कौरव सेना के आधे भाग को स्वयं ही नष्ट किया है। राजन्। देवताओं की सेना के समान प्रकाशित होने वाली भरतवंशियों की यह विशाल वाहिनी मेरे ही हाथों मारी जाकर रणभूमि में सो रही है ।
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