महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 82 श्लोक 15-28
द्वयशीतितम (82) अध्याय: कर्ण पर्व
इसी बीच में सूतपुत्र कर्ण ने सोमकों का संहार करते हुए उनके साथ महान् युद्ध किया। उनके बहुत-से घोड़े, रथ और हाथियों का वध कर डाला और बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। उस समय धृष्टधुम्न के साथ गर्जते हुए उत्तमौजा, जनमेजय, कुपित युधामन्यु और शिखण्डी-ये सब संगठित होकर अपने बाणों द्वारा कर्ण को घायल करने लगे।
पांचाल रथियों में प्रमुख ये पाँचों वीर वैकर्तन कर्ण पर आक्रमण करके भी उसे उस रथ से नीचे न गिरा सके। ठीक उसी तरह, जैसे जिसने अपने मन को वश में कर रखा है उस योगी को शब्द, स्पर्श आदि विषय धैर्यसे विचलित नहीं कर पाते हैं। कर्ण ने अपने बाणों द्वारा तुरन्त ही उनके धनुष, ध्वज, घोड़े, सारथि और पताकाएँ काट डालीं और पाँच बाणों से पाँचों वीरों को भी घायल कर दिया। तत्पश्चात् वह सिंह के समान दहाड़ने लगा। कर्ण बाण छोड़ता और शत्रुओं का संहार करता जा रहा था। उसके हाथ में धनुष की प्रत्यंचा और बाण सदा मौजूद रहते थे। उसके धनुष की टंकार से पर्वतों और वृक्षों सहित यह सारी पृथ्वी विदीर्ण हो जायगी, ऐसा समझकर सब लोग अत्यन्त खिन्न हो उठे थे। इन्द्रधनुष के सामन खींचे हुए मण्डलाकार विशाल धनुष के द्वारा बाणों की वर्षा करता हुआ अधिरथपुत्र कर्ण रणभूमि में प्रकाशमान किरणोंवाले परिधियुक्त अंशुमाली सूर्य के समान शोभा पा रहा था। उसने शिखण्डी को बारह, उत्तमौजा को छः, युधामन्यु को तीन तथा जनमेंजय और धृष्टधुम्न को भी तीन-तीन पैने बाणों से अत्यन्त घायल कर दिया।
आर्य ! जैसे मन को वश में रखनेवाले जितेन्द्रिय पुरूष के द्वारा पराजित हुए विषय उसे आकृष्ट नहीं कर पाते, उसी प्रकार महासमर में सूतपुत्र कर्ण के द्वारा परास्त हुए वे पाँचों पांचाल वीर निश्चेष्टभाव से खड़े हो गये और शत्रुओं का आनंद बढ़ाने लगे। जैसे समुद्र में जिनकी नाव डूब गयी हो, उन डूबते हुए व्यापारियों को दूसरी नौकाओं द्वारा लोग बचा लेते हैं, उसी प्रकार द्रौपदी के पुत्रों ने कर्णरूपी सागर में डूबने वाले अपने उन मामाओं को रण-सामग्री सजे-सजाये रथोंद्वारा बचाया। तत्पश्चात् शिनिप्रवर सात्यकि ने कर्ण के छोड़े हुए बहुत से बाणों को अपने तीखे बाणों से काटकर लोहे के पैने बाणों से कर्ण को घायल करने के पश्चात् आपके ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को आठ बाण मारकर बींध डाला। तब कृपाचार्य, कृतवर्मा, आपका पुत्र दुर्योधन तथा स्वयं कर्ण भी सात्यकि को तीखे बाणों से घायल करने लगे। यदुकुलतिलक सात्यकि ने अकेले ही उन चारों वीरों के साथ उसी प्रकार युद्ध किया, जैसे दैत्यराज हिरणकशिपुने चारों दिक्पालों के साथ किया था।
जैसे शरद्ऋतु के आकाश मण्डल के बीच में आये हुए मध्याह्रकालिक सूर्य प्रचण्ड हो उठते हैं, उसी प्रकार असंख्य बाणों की वर्षा करने वाले तथ कान तक खींचे जाने के कारण गम्भीर टंकार करनेवाले अपने विशाल धनुष के द्वारा सात्यकि उस समय शत्रुओं के लिये अत्यन्त दुर्जय हो उठे।
तदनन्तर शत्रुओं को तपानेवाले पूवोक्त पांचाल महारथी कवच पहन रथों पर आरूढ़ हो पुनः आकर शिनिप्रवर सात्यकि की रणभूमि में उसी तरह रक्षा करने लगे, जैसे मरूद्रण शत्रुओं के दमनकाल में देवराज इन्द्र की रक्षा करते हैं।। इसके बाद आपके शत्रुओं का आपके सैनिकों के साथ अत्यन्त दारूण युद्ध होने लगा, जो रथों, घोड़ों और हाथियों का विनाश करने वाला था। वह युद्ध प्राचीन काल के देवासुर संग्राम के समान जान पड़ता था।
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