महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 88 श्लोक 14-24

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अष्टाशीतितम (88) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद

महाराज ! तदनन्तर दुर्योधन, कतृवर्मा, शकुनि, शरद्वान्, के पुत्र कृपाचार्य और कर्ण-ये पांच महारथी शरीरों को पीड़ा देने वाले बाणों द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन को घायल करने लगे। यह देख अर्जुन ने उनके धनुष, तरकस, ध्वज, घोडे़, रथ और सारथि-इन सबको अपने बाणोंद्वारा एक साथ ही प्रमथित करके चारों ओर खडे़ हुए शत्रुओं को शीघ्र ही बींध डाला और सूतपुत्र कर्ण पर भी बारह बाणों का प्रहार किया। तदनन्तर वहां सैकड़ों रथी और सैकड़ों हाथीसवार आततायी बनकर अर्जुन को मार डालने की इच्छा से दौड़े़ आये, उनके साथ शक, तुषार, यवन आदि काम्बोजदेशों के अच्छे घुड़सवार भी थे। परंतु अर्जुन ने अपने हाथ के बाणों और क्षुरों द्वारा उन सबके उत्तम-उत्तम अस्त्रों को काट डाला। शत्रुओं के मस्तक कट-कटकर गिरने लगे। अर्जुन ने विपक्षियों के घोड़ों, हाथियों और रथों तथा युद्ध में तत्पर हुए उन शत्रुओं को भी पृथ्वी पर काट गिराया। तत्पश्चात् आकाश में हर्ष से उल्लसित हुए दर्शकों द्वारा साधुवाद देने के साथ-साथ दिव्य बाजे भी बजाये जाने लगे। वायु की प्रेरणा से वहाँ सुन्दर सुगन्धित और उत्तम फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं और मनुष्यों के सक्षित्व में होनेवाले उस अदभुत युद्ध को देखकर समस्त प्राणी उस समय आश्चर्य चकित हो उठे; परंतु आपका पुत्र दुर्योधन और सूतपुत्र कर्ण-ये दोनों ही एक निश्चय पर पहुँच चुके थे; अतः इनके मन में न तो व्यथा हुई और न ये विस्मय को ही प्राप्त हुए।
तदनन्तर द्रोणाकुमार अश्वत्थामा ने दुर्योधन का हाथ अपने हाथ से दबकार उसे सान्त्वना देते हुए कहा-दुर्योधन ! अब प्रसन्न हो जाओ। पाण्डवों से संधि कर लो। वीरोंध से कोई लाभ नहीं है। आपस के इस झगड़े को धिक्कार है! तुम्हारे गुरूदेव अस्त्रविद्या के महान् पण्डित थे। साक्षात् ब्रह्यजी के समान थे तो भी इस युद्ध में मारे गये। यही दशा भीष्म आदि महारथियों की भी हुई। में और मेंरे मामा कृपाचार्य तो अवध्य हैं (इसलिये अबतक बचे हुए हैं) अतः अब तुम पाण्डवों के साथ मिल कर चिरकाल तक राज्यशान करो। अर्जुन मेंरे मना करने पर शांत हो जायँगे। श्रीकृष्ण भी तुमलोगों में वीरोंध नहीं चाहते हैं। युधिष्ठिर तो सभी प्राणियों के हित में ही लगे रहते हैं। अतः वे भी मेंरी बात मान लेंगे। बाकी रहे भीमसेन और नकुल-सहदेव, सो ये भी धर्मराज के अधीन हैं; (अतः उनकी इच्छा के विरूद्ध कुछ नहीं करेंगे) इस प्रकार पाण्डवों के साथ तुम्हारी संधि हो जाने पर सारी प्रजा का कल्याण होगा। फिर तुम्हारी इच्छा से शेष सगे-सम्बन्धी भाई-बन्धु अपने-अपने नगर को लौट जायँ और समस्त सैनिकों को युद्ध से छुट्टी मिल जाय। नरेश्वर ! यदि मेंरी बात नहीं सुनोगे तो निश्चय ही युद्ध में शत्रुओं के हाथ से मारे जाओगे और उस समय समय तुम्हें बड़ा पश्चात्ताप होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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