महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 88 श्लोक 30-33
अष्टाशीतितम(88) अध्याय: कर्ण पर्व
सुहृदय अश्वत्थामा ने जब इस प्रकार हित की बात कहीं, तब दुर्योधन उसपर विचार करके लंबी साँस खींचकर मन-ही-मन दुखी हो इस प्रकार बोले-सखे! तुम जैसा कहते हो, वह सब ठीक है; परंतु इस विषय में कुछ में भी निवेदन कर रहा हूँ, अतः मेंरी बात भी सुन लो। इस दुर्बुद्धि भीमसेन ने सिंह के समान हठपूर्वक दुःशासन का वध करके तो बात कहीं थी, वह तुमसे छिपी नहीं है। वह इस समय भी मेंरे हृदय में स्थित होकर पीड़ा दे रही है। ऐसी दशा में कैसे संधि हो सकती है ? इसके सिवा भयंकर वायु जैसे महापर्वत मेंरू का सामना नहीं कर सकती, उसी प्रकार अर्जुन इस रणभूमि में कर्ण का वेग नहीं सह सकते। हमने हठपूर्वक बारंबार जो वैर किया है, उसे सोचकर कुन्ती के पुत्र मुझपर विश्वास भी नहीं करेंगे। अपनी मर्यादा न छोड़नेवाले गुरूपुत्र ! तुम्हें कर्ण से युद्ध बंद करने के लिये नहीं कहना चाहिये; क्योंकि इस समय अर्जुन महान् परिश्रम से थक गये हैं; अतः अब कर्ण उन्हें बलपूर्वक मार डालेगा। अश्वत्थामा से ऐसा कहकर बारंबार अनुनय-विनय के द्वारा उसे प्रसन्न करके आपके पुत्र ने अपने सैनिकों को आदेश देते हुए कहा-अरे ! तुम लोग हाथों में बाण लिये चुपचाप बैठे क्यों हो ? मेंरे शत्रुओं पर टूट पड़ो और उन्हें मार डालो।
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