महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 42-61

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षष्णवतितम (96) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: षष्णवतितम अध्याय: श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद

आज दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन अत्यन्त अभिमानी नरव्याघ्र राधापुत्र कर्ण के मारे जाने का वृत्तान्त सुनकर राज्य और जीवन से भी निराश हो जायगा। पुरूषोत्तम ! आपकी कृपा से रणभूमि में राधापुत्र कर्ण के मारे जाने पर हम सब लोग कृतार्थ हो गये। गोविन्द ! बडे़ भयानक से आपकी विजय हुई है। भाग्य से ही हमारा शत्रु कर्ण आज मार गिराया गया है और सौभाग्य से ही गाण्डीवधारी पाण्डुनन्दन अर्जुन विजयी हुए हैं।। महाबाहो ! अत्यन्त दुखी होकर हमलोगों ने जागते हुए तेरह वर्ष व्यतीत किये हैं। आज की रात में आपकी कृपा से हमलोग सुखपूर्वक सो सकेंगे। संजय कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार धर्मराज राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण तथा कुरूश्रेष्ठ अर्जुन की बारंबार प्रशंसा की। पुत्रसहित कर्ण को अर्जुन के बाणों से मारा गया देख राजा युधिष्ठिर ने अपना नया जन्म हुआ सा माना। महाराज ! उस समय हर्ष में भरे हुए पाण्डवपक्ष के महारथी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से मिलकर उनका हर्ष बढ़ाने लगे।
राजेन्द्र ! नकुल-सहदेव, पाण्डुपुत्र भीमसेन, वृष्णिवश के श्रेष्ठ महारथी सात्यकि, धृष्टघुम्न और शिखण्डी और पाण्डव, पांचाल तथा सृंजय योद्धा सूतपुत्र कर्ण के माने जाने पर कुन्ती कुमार अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। वे विजय से उल्लसित हो रहे थे। उनका लक्ष्य सिद्ध हो गया था। वे युद्धकुशल महारथी योद्धा धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर को बधाई देकर स्तुतियुक्त वचनों द्वारा शत्रुसंतापी श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने शिविर को गये। राजन् ! इस प्रकार आपकी ही कुमन्त्रणा के फलस्वरूप यह रोमांचकारी महान जनसंहार हुआ है। अब आप किस लिये बारंबार शोक करते हैं ? वैशम्पायनजी कहते हैं- जयमेंजय ! यह अप्रिय समाचार सुनकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र निश्चेष्ट हो जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पडे़। इसी तरह दूर तक सोचने वाली गान्धारी देवी भी पछाड़ खाकर गिरीं और बहुत विलाप करती हुई युद्ध में कर्ण की मृत्यु के लिये शोक करने लगीं। उस समय विदुरजी ने गान्धारी देवी को और संजय ने राजा धृतराष्ट्र को सँभाला। फिर दोनों ही मिलकर राजा को समझाने बुझाने लगे। इसी प्रकार कुरूकुल की स्त्रियों ने आकर गान्धारी देवी को उठाया। भाग्य और भवितव्यता को ही प्रबल मानकर राजा धृतराष्ट्र भारी व्यथा का अनुभव करने लगे। उनकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। वे महातपस्वी नरेश चिन्ता और शोक में डूब गये और मोह से पीड़ित होने के कारण उन्हें किसी भी बात की सुध न रही। विदुर और संजय के समझाने पर राजा धृतराष्ट्र अचेत से होकर चुपचाप बैठे रह गये।
भारत ! जो मनुष्य महात्मा अर्जुन को कर्ण के इस महायुद्धरूपी यज्ञ का पाठ अथवा श्रवण करेगा, वह विधिपूर्वक किये हुए यज्ञानुष्ठान फल प्राप्त कर लेगा। सनातन भगवान विष्णु यज्ञस्वरूप हैं, इस बात को अग्नि, वायु, चन्द्रमा और सूर्य भी कहते हैं। अतः जो मनुष्य दोष दृष्टि का परित्याग करके इस युद्धयज्ञ का वर्णन पढ़ता था सुनता है, वह सम्पूर्ण लोकों में विचरने वाला और सुखी होता है।। जो मनुष्य सदा भक्तिभाव से इस उत्तम एवं पुण्यमयी संहिता का पाठ करते हैं, वे धन-धान्य एवं यश से सम्पन्न हो आनंद के भागी होते हैं। इस बात में कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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