महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 144 श्लोक 1-18

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चतुश्‍चत्‍वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: चतुश्‍चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

सात्यकि के भूरिश्रवा द्वारा अपमानित होने का कारण तथा वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा

धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय ! जो वीर सात्यकि द्रोण, कर्ण, विकर्ण और कृतवर्मा से भी परास्त न हुए और युधिष्ठिर से की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार कौरवसेनारूपी समुद्र से पार हो गये, जिन्हें समरांगण में कोई भी रोक न सका, उन्हीं को कुरुवंशी भूरिश्रवा ने बलपूर्वक पकड़ कर कैसे पृथ्वी पर गिरा दिया ?

संजय ने कहा-राजन ! जिस विषय में आपको संशय है, उसे स्पष्ट समझने के लिये यहां पूर्वकाल में सात्यकि और भूरिश्रवा की उत्पत्ति जिस प्रकार हुई थी, वह प्रसंग सुनिये। महषि अत्रि के पुत्र सोम हुए। सोम के पुत्र बुध माने गये हैं। बुध के एक ही पुत्र हुआ पुरूरवा, जो देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी था। पुरूरवा के पुत्र आयु और आयु के पुत्र नहुष हुए। नहुष के राजा ययाति हुए, जिनका देवताओं तथा ऋषियों में भी बड़ा आदर था। ययाति से देवयानी के गर्भ से जो ज्येष्ठ पुत्र हुआ, उसका नाम यदु था। इन्हीं यदु के वंश में देवमीढ़ नाम से विख्यात एक यादव हो गये हैं। उनके पुत्र का नाम था शूर, जो तीनों लाकों में सम्मानित थे। शूर के पुत्र नरश्रेष्ठ शौरि हुए, जो महायशस्वी वसुदेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। शूर धनुर्विद्या में सबसे श्रेष्ठ थे। वे युद्ध में कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी थे। नरेश्वर ! जिस कुल में शूर का जन्म हुआ था, उसी में उन्हीं के समान बलशाली शिनि हुए।। राजन ! इसी समय महात्मा देवक की पुत्री देवकी के स्वयंवर में सम्पूर्ण क्षत्रिय एकत्र हुए थे। उस स्वयंवर में शिनि ने शीघ्र ही समस्त राजाओं को जीतकर वसुदेव के लिये देवकी देवी को रथ पर बैठा लिया। नरश्रेष्ठ ! नरेश्वर ! उस समय महातेजस्वी शूरवीर सोमदत्त ने देवकी देवी को रथ पर बैठे हुए देख शिनि के पराक्रम को सहन नहीं किया। पुरुषप्रवर महाराज ! उन दोनों महाबली शिनि और सोमदत्त में आधे दिन तक विचित्र एवं अद्भूतबाहुयुद्ध हुआ । उसमें शिनि ने सोमदत्त को बलपूर्वक पृथ्वी वर पटक दिया और तलवार उठाकर उनकी चुटिया पकड़ ली एवं उन्हें लात मारी। चारों ओर से सहस्त्रों नरेश दर्शक बनकर यह युद्ध देख रहे थे। उनके बीच में पुनः कृपा करके ‘जाओ, जीवित रहो’ ऐसा कहकर शिनि ने सोमदत्त को छोड़ दिया। माननीय नरेश ! जब शिनि ने सोमदत्त की ऐसी दुरवस्था कर दी, तब उन्होंने अमर्ष के वशीभूत हो आराधना द्वारा महादेवजी को प्रसन्न किया। श्रेष्ठ देवताओं में भी सर्वश्रेष्ठ वरदायक तथा सामर्थ्‍यशाली महादेवजी ने संतुष्ट होकर उन्हें इच्छानुसार वर मांगने के लिये कहा। तब राजा सोमदत्त ने इस प्रकार वर मांगा-। भगवान ! मैं ऐसा पुत्र पाना चाहता हूं, जो शिनि के पुत्र को सहस्त्रों राजाओं के बीच युद्ध में पृथ्वी पर गिराकर उसे पैर से मारे। राजन ! सोमदत्त का यह कथन सुनकर महादेवजी ने सिर हिलाकर कहा-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। नरेश्वर ! शिनि के पुत्र ने तो पहले ही तपस्या द्वारा मेरी आराधना करके तीनों लोकों में किसी से भी न मारे जाने का उत्तम वर मुझसे प्राप्त कर लिया है; परंतु तुम्हारा भी यह प्रयास निष्फल नहीं होगा। तुम्हारा पुत्र समरभूमि में शिनि के पौत्र को तुम्हारी इच्छा के अनुसार मूर्छित कर देगा, परंतु उसके हाथ से वह मारा नहीं जा सकेगा; क्योंकि श्रीकृष्ण से वह सुरक्षित होगा। मैं ही श्रीकृष्ण हूं। हम दोनों में कहीं कोई अन्तर नहीं है। जाओ, ऐसा ही होगा। ऐसा कहकर महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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