महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 154 श्लोक 1-20
चतुष्पण्चाशदधिकशततम (154) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
रात्रियुद्ध में पाण्डव-सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और द्रोणाचार्य द्वारा उनका संहार धृतराष्ट्र उवाच धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय ! मेरी आज्ञा का उल्लघंन करने वाले मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधन से पूर्वोक्त बातें कहकर क्रोध में भरे हुए बलवान् आचार्य द्रोण ने जब वहां पाण्डव सेना में प्रवेश किया, उस समय रथपर बैठकर सेना के भीतर प्रवेश करके सब ओर विचरते हुए महाधनूर्घर शूरवीर द्रोणाचार्य को पाण्डवों ने किस प्रकार रोका । उस महासमर में बहुसंख्यक शत्रु युद्धाओं का संहार करनेवाले आचार्य देाण के चक्र की किन लोगों ने रक्षा की तथा किन लोगों ने उनके रथ के बायें पहिये की रखवाली की ? युद्धपरायण वीर रथी आचार्य के पीछे कौन-से वीर थे और शत्रुपक्ष के कौन-कौन से वीर उनके सामने खडे हुए थे । मैं तो समझता हूं शत्रुओं को बहुत देरत क बिना मौसम- के ही सर्दी लगने लगी होगी। जैसे शिशिर ऋतु में गायें सर्दी के मारे कांपने लगती हैं, उसी तरह वे शत्रु सैनिक भी आचार्य के भ यसे थर-थर कांपने लगे होंगे । क्योंकि किसी से परास्त न होने वाले, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों-में श्रेष्ठ महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने पाण्जालों की सेना में रथ के मार्गोपर नृत्य-सा करते हुए प्रवेश किया था । रथियों में श्रेष्ठ द्रोण क्रोध में भरे हुए धूमकेतु के समान प्रकट होकर पाण्जालों की समस्त सेनाओं को दग्ध कर रहे थे; फिर उनकी मृत्यू कैसी हो गयी ? संजय उवाच संजय ने कहा- राजन् ! सांयकाल सिंधुराज जयद्रथ-का वध करके राजा युधिष्ठिर से मिलकर कुन्तीकुमार अर्जुन और महाधनुर्धर सात्यकि दोनों ने द्रोणाचार्य पर ही धावा किया ।। इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर और पाण्डुपुत्र भीमसेन ने भी पृथक-पृथक सेनाओं के साथ तैयार हो शीघ्रतापूर्वक द्रोणाचार्य पर ही आक्रमण किया । इसी तरह बुद्धिमान् नकुल, दुर्जय वीर सहदेव, सेना-सहित धृष्टद्युम्न, राजा विराट, केकयराजकुमार तथा मत्स्य और शाल्वदेश के सैनिक अपनी सेनाओं के साथ युद्धस्थल में द्रोणाचार्य पर ही चढ आये । राजन् ! पाण्जाल सैनिकों से सुरक्षित धृष्टद्युम्न पिता राजा द्रुपद ने भी द्रोणाचार्य का ही सामना किया । महाधनुर्धर द्रौपदीकुमार तथा राक्षस घटोत्कच भी अपनी सेनाओं के साथ महातेजस्वी द्रोणाचार्य की ही ओर लौट आये । प्रहार करने मे कुशल छः हजार प्रभद्रक और पाण्जाल योद्धा भी शिखण्डी को आगे करके द्रोणाचार्य पर ही चढ आये । इसी प्रकार पाण्डव-सेना के अन्य महारथी वीर पुरूष-सिंह भी एक साथ द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य की ओर ही लौट आये । भरतश्रेष्ठ ! युद्ध के उनषूरवीरों के आ पहुंचने पर वह रात बडी भयंकर हो गयी, जो भीरू पुरूषों के भय को बढानेवाली थी । राजन् ! वह रात्रि समस्त योद्वाओं के लिये अमगंल-कारक, भयंकर, यमराज के पास ले जाने वाली तथा हाथी, घोडे और मनुष्यों के प्राणों का अन्त करने वाली थी । उस घोर रजनी में सब ओर कोलाहल करती हुई सियारिनें अपने मुंह से आग उगलती हुई घोर भय की सूचना दे रही थी । विषेशतः कौरवसेना में महान् भय की सूचना देनेवाले अत्यन्त दारूण उल्लू पक्षी भी दिखायी दे रहे थे । राजेन्द्र ! तदनन्तर सारी सेनाओं में रणभेरी की भारी आवाज, मृदडों की ध्वनि, हाथियों के चिग्घाडनें, घोडों के हिनहिनाने और धरती पर उनकी टाप पडने से चारों ओर अत्यन्त भयंकर शब्द गूंजने लगा ।
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