महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 44-62
षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
जो-जो युद्धा पुरूष द्रोणाचार्य के सामने खडा होता, उसी-उसी का सिर काटकर द्रोणाचार्य के बाण धरती में समा जाते थे। इस प्रकार महात्मा द्रोण के द्वारा मारी जाती हुई पाण्डव-सेना पुनः भयभीत हो सव्यसाची अर्जुन के देखते-देखते भागने लगी। भरतनन्दन ! रात में द्रोणाचार्य के द्वारा अपनी सेना को भगायी हुई देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा- ’आप द्रोणाचार्य के रथ के समीप चलिये ’। तब दशाईकुलनन्दन श्रीकृष्णने चांदी, गोदुग्ध, कुन्दपुष्प तथा चन्द्रमा के समान श्वेत कान्तिवाले घोडों को द्रोणाचार्य के रथ की ओर हांका। अर्जुन को द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये जाते देख भीमसेन ने भी अपने सारथि से कहा- ’ तुम द्रोणाचार्य की सेना की ओर मुझे ले चलो ’। भरतश्रेष्ठ ! उनके सारथि विशोक ने उनकी बात सुनकर सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन के पीछे अपने घोडों को बढाया। महाराज ! उन दोनों भाइयों को द्रोणाचार्य की सेना की ओर युद्ध के लिये उद्यत होकर जाते देख पाण्जाल, संजय, मत्स्य, चेदि, कारूष, कोसल तथा केकय महारथियों ने भी उन्हीं का अनुसरण किया। राजन् ! फिर तो वहां रोंगटे खडे कर देनेवाला घोर संग्राम आरम्भ हो गया । अर्जुन ने द्रोणाचार्य की सेना के दक्षिणभाग को और भीमसेन ने वामभाग को अपना लक्ष्य बनाया। उन दोनों भाइयों के साथ विशाल रथ तथा सेनाएं थी। राजन् ! पुरूषसिंह भीमसेन और अर्जुन को द्रोणाचार्य पर धावा करते देख धृष्टद्युम्न और महाबली सात्यकि भी वहीं जा पहुंचे। महाराज ! उस समय परस्पर आघात-प्रतिघात करते हुए उन सैन्यसमूहों का कोलाहल प्रचण्ड वायु से विक्षुब्ध हुए समुद्र की गर्जना के समान प्रतीत होता था। नरेश्रवर ! द्रोणपुत्र अश्रत्थामा सोमदतकुमार भूरिश्रवा के वध से अत्यन्त कुपित हो उठा था। उसने युद्धस्थल में सात्यकि को देखकर उनके वध का दृढ निश्चय करके उनपर आक्रमण किया। अश्वत्थामा को शिनिपौत्र के रथ की ओर जाते देख अत्यन्त कुपित हुए भीमसेन के पुत्र घटोत्कच ने अपने उस शत्रु को रोका। घटोत्कच जिस विशाल रथ पर बैठकर आया था, वह काले लोहे का बना हुआ और अत्यन्त भयंकर था। उसके उपर रीछ की खाल मढी हुई थी। उसके भीतरी भाग की लम्बाई-चौडाई तीस नल्व (बारह हजार हाथ) थी। उसमें यन्त्र और कवच रक्खे हुए थे। चलते समय उससे मेघों की भारी घटा के समान गम्भीर शब्द होता था। उसमें हाथी-जैसे विशालकाय वाहन जुते हुए थे, जो वास्तव में न घोडे थे और न हाथी। उस रथ की ध्वजा का डंडा बहुत उंचा था। वह ध्वज पंख और पंजे फैलाकर आंखें फाड-फाडकर देखने और कूजनेवाले एक गृघ्रराज से सुशोभित था। उसकी पताका खून से भीगी हुई थी और उस रथ को आंतों की मालासे विभूषित किया गया था। ऐसे आठ पहियों वाले विशाल रथ पर बैठा हुआ घटोत्कच भयंकर रूपवाले राक्षसों की एक अक्षौहिणी सेना से घिरा हुआ था। उस समस्त सेना ने अपने हाथों में शूल, मुद्रर, पर्वत-शिखर और वृक्ष ले रक्खे थे। प्रलयकाल में दण्डधारी यमराज के समान विशाल धनुष उठाये घटोत्कच को देखकर समस्त राजा व्यथित हो उठे।
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