महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 157 श्लोक 21-42
सप्तपण्चाशदधिकशततम (157) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
तदनन्तर कर्णके सुविख्यात बलवान् भ्राता वृकरथ ने आकर भीमसेन पर भी आक्रमण किया और उन्हें नाराचों-द्वारा घायल कर दिया । भारत तत्पश्चात वीर भीष्मसेन ने आपके सालों मे से सात रथियों को नाराचों द्वारा मारकर शतचन्द्र को भी काल के गाल में भेज दिया। महारथी शतचन्द्र के मारे जानेपर अमर्ष में भरे हुए शकुनि के वीर भाई गवाक्ष, शरभ, विभु, सुभग और भानुदत-ये पांच शूर महारथी भीमसेन पर टूट पडे़ और उन्हें पैने बाणों द्वारा घायल करने लगे ।
जैसे वर्षा के वेग से पर्वत आहत होता है, उसी प्रकार उनके नाराचों से घायल होकर बलवान् भीमसेन ने अपने पांच बाणों द्वारा उन पांचों अतिरथी वीरों को मार डाला । उन पांचों वीरों को मारा गया देख सभी श्रेष्ठ नरेश विचलित हो उठे। निष्पाप नरेश्वर ! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर द्रोणाचार्य तथा आप के पुत्रों के देखते-देखते आपकी सेना का संहार करने लगे । उस युद्ध में क्रुध होकर युधिष्ठिर ने अम्बष्ठों, मालवों, शूरवीर त्रिगतों तथा शिविदेशीय सैनिकों को भी मृत्यु के लोक में भेज दिया । अभीषाह, शूरसेन, बाहीक और वसातिदेशीय योद्धाओं को नष्ट करके राजा युधिष्ठिर ने इस भूतल पर रक्त की कीच मचा दी । राजन् ! युधिष्ठिर ने अपने बाणों से यौधेय, मालव तथा शूरवीर मद्रकगणों को मृत्यु के लोक में भेज दिया । युधिष्ठिर के रथ के आसपास ’मारो, ले आओ, पकडो, घायल करो, टूकडे-टूकडे कर डालो’ इत्यादि भयंकर शब्द गूंजने लगा । द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को अपनी सेनाओं को खदेडते देख आपके पुत्र दुर्योधन से प्रेरित होकर उनपर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी । अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने वायव्यास्त्र से राजा युधिष्ठिर को बींघ डाला। युधिष्ठिर ने भी उनके दिव्यास्त्रों-को अपने दिव्यास्त्र से ही नष्ट कर दिया । उस अस्त्र के नष्ट हो जाने पर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर पर क्रमशः वारूण, याम्य, आग्नेय, त्वाष्ट्र और सावित्र नामक दिव्यास्त्र चलाया; क्योंकि वे अत्यन्त कुपित होकर पाण्डु-नन्दन युधिष्ठिर को मार डालना चाहते थे । परंतु महाबाहु धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से तनिक भी भय न खाकर उनके द्वारा चलाये गये और चलाये जानेवाले सभी अस्त्रों को अपने दिव्यास्त्रों ने नष्ट कर दिया ।। भारत ! द्रोणाचार्य ने अपनी प्रतिज्ञा को सच्ची करने की इच्छा से आपके पुत्र के हित में तत्पर हो धर्मपुत्र युधिष्ठिर को मार डालने की अभिलाषा लेकर उनके उपर ऐन्द्र और प्राजापत्य नामक अस्त्रों का प्रयोग किया । तब गज और सिंह के समान गतिवाले, विशाल वक्षःस्थल-से सुशोभित, बडे-बडे लाल नेत्रोंवाले, उत्कृष्ट तेजस्वी कुरूपति युधिष्ठिर ने माहेन्द्र अस्त्र प्रकट किया और उसी से अन्य सभी दिव्यास्त्रों को नष्ट कर दिया । उन अस्त्रों के नष्ट हो जानेपर क्रोध भरे द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर का वध करने की इच्छा से ब्रहास्त्र का प्रयोग किया । महीपते ! फिर तो मैं घोर अन्धकार से आवृत उस युद्धस्थल में कुछ भी जान न सका और समस्त प्राणी अत्यन्त भयभीत हो उठे । राजेन्द्र ! ब्रहास्त्र को उद्यत देख कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने ब्रहास्त्र से ही उस अस्त्रका निवारण कर दिया । तदनन्तर प्रधान-प्रधान सैनिक सम्पूर्ण युद्धकाल में
प्रवीण, महाधनुर्घर, नरश्रेष्ठ द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर की बडी प्रशंसा करने लगे ।
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