महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 162 श्लोक 1-21

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द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध, द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध तथा भगवान श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आद

संजय कहते हैं-राजन्! सोमदत्त को अपना विशाल धनुष हिलाते देख सात्यकिने अपने सारथि से कहा- ‘मुझे सोमदत्त के पास ले चलो। ‘सूत! आज मैं रणभूमि में अपने महाबली शत्रु सोमदत्त का वध किये बिना वहाँ से पीछे नहीं लौटूँगा। मेरी यह बात सत्य है’। तब सारथि ने शंख के समान श्वेत वर्णवाले तथा सम्पूर्ण शब्दों का अतिक्रमण करने वाले मन के समान वेगशाली सिंधी घोड़ों को रणभूमि में आगे बढ़ाया। राजन्! मन और वायु के समान वेगशाली वे घोड़े युयुधान को उसी प्रकार ले जाने लगे, जैसे पूर्वकाल में दैत्यवध के लिये उद्यत देवराज इन्द्र को उने घोड़े ले गये थे।। वेगशाली सात्यकि को रणभूमि में अपनी ओर आते देख महाबाहु सोमदत्त बिना किसी घबराहट के उनकी ओर लौट पडे़। वर्षा करने वाले मेघ की भाँति बाणसमूहों की वृष्टि करते हुए सोमदत्त ने, जैसे बादल सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार शिनिपौत्र सात्यकि को आच्छादित कर दिया। भरतश्रेष्ठ! उस समरागंण में सम्भ्रमरहित सात्यकिने भी अपने बाणसमूहों द्वारा सब ओर से कुरूप्रवर सोमदत्त को आच्छादित कर दिया। राजन्! फिर सोमदत्त ने सात्यकिकी छाती में साठ बाण मारे और सात्यकिने भी उन्हें तीखे बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया। वे दोनों नरश्रेष्ठ एक दूसर के बाणों से घायल होकर वसन्त ऋतु में सुन्दर पुष्पवाले दो विकसित पलाशवृक्षों के समान शोभा पा रहे थे। कुरूकुल और वृष्णिवंश के यश बढ़ाने वाले उन दोनों वीरों के सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे। वे नेत्रों द्वारा एक दूसरे को जलाते हुए से देख रहे थे। रथ मण्डल के मार्गों पर विचरते हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर वर्षा करने वाले दो बादलों के समान भयंकर रूप धारण किये हुंए थे। राजेन्द्र! उने शरीर बाणों से क्षत-विक्षत होकर सब ओर से खण्डित से हो बाणविद्ध हिंसक पशुओं के समान दिखायी दे रहे थे। राजन्! सुवर्णमय पंखवाले बाणों से व्याप्त होकर वे दोनों योद्धा वर्षकाल में जुगनुओं से व्याप्त हुए दो वृक्षों के समान सुशोभित हो रहे थे। उन दोनों महारथियों के सारे अंग उन बाणों से उद्भासित हो रहे थे, इसीलिये वे दोनों, रणक्षेत्र में उल्काओं से प्रकाशित एवं क्रोध में भरे हुए दो हाथियों के समान दिखायी देते थे। महाराज! तदनन्तर युद्धस्थल में महारथी सोमदत्त ने अर्धचन्द्राकार बाण से सात्यकि के विशाल धनुष को काट दिया। और तत्काल ही उन पर पचीस बाणों का प्रहार किया। शीघ्रता के अवसर पर शीघ्रता करने वाले सोमदत्त नेसात्यकि को पुनः दस बाणों से घायल कर दिया। तदनन्तर सात्यकि ने अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथ में लेकर तुरंत ही पाँच बाणों से सोमदत्त को बींध डाला।। राजन्! फिर सात्यकि ने हँसते हुए से रणभूमि में एक दूसरे भल्ल के द्वारा बाल्हीकपुत्र सोमदत्त के सुवर्णमय ध्वज को काट दिया। ध्वज को गिराया हुआ देख सम्भ्रमरहित सोमदत्त ने सात्यकि के शरीर में पचीस बाण चुन दिये। तब रणक्षेत्र में कुपित हुए सात्यकिने भी तीखे क्षुरप्र नामक भल्ल से धनुर्धर सोमदत्त के धनुष को काट दिया। राजन्! तत्पश्चात् उन्होंने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंखवाले सौ बाणों से टूटे दाँतवाले हाथी के समान सोमदत्त के शरीर को अनेक बार बींध दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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