महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 169 श्लोक 1-20

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एकोनसप्तत्यधिकशततम (169) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: एकोनसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय तथा शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध


संजय कहते हैं- राजन्! वेगशाली नकुल युद्ध में आपकी सेना का संकहार कर रहे थे। उनका सामना करने के लिये क्रोध में भरा हुआ सुबल पुत्र शकुनि आया और बोला ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’। उन दोनों वीरों ने पहले से ही आपस में वैर बाँध रक्खा था, वे एक दूसरे का वध करना चाहते थे, इसलिये पूर्णतः कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणों से वे एक दूसरे को घायल करने लगे। राजन्! नकुल जैसे-जैसे बाणों की वर्षा करते, शकुनि भी वैसे ही वैसे युद्धविषयक शिक्षा का प्रदर्शन करता हुआ बाण छोड़ता था। महाराज! ये दोनों शूरवीर समरागंण में बाणरूपी कंटकों से युक्त होकर काँटेदार शरीर वाले साही के समान सुशोभित हो रहे थे। सोने के पंख और सीधे अग्रभाग वाले बाणों से उन दोनों के कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे। दोनों ही उस महासमर में खून से लथपथ हो सुवर्ण के समान विचित्र कान्ति से सुशोभित हो रहे थे। वे दो कल्पवृक्षों और खिले हुए दो ढाक के पेड़ों के समान समरागंण में प्रकाशित हो रहे थे।। 5-6।। महाराज! जैसे काटों से सेमर का वृक्ष सुशोभित होता है, उसी प्रकार वे दोनों शूरवीर समरभूमि में बाणरूपी कंटकों से युक्त दिखायी देते थे।। 7।। राजन! वे अत्यन्त कुटिलभाव से परस्पर आँखें फाड़ फाड़कर देख रहे थे और क्रोध से लाल नेत्र करके एक दूसरे को ऐसे देखते थे, मानो भस्म कर दें। तदनन्तर अत्यन्त क्रोध में भरकर हँसते हुए से आपके साले ने एक तीखे कणीं नामक बाण से माद्री पुत्र नकुल की छाती में गहरा आघात किया। आपके धनुर्धर साले के द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए नकुल रथ के पिछले भाग में बैठ गये और भारी मूर्छा में पड़ गये। राजन! अपने अत्यन्त बैरी और अभिमानी शत्रु को वैसी अवस्था में पड़ा देख शकुनि वर्षाकाल के मेघ के समान जोर-जोर से गर्जना करने लगा। इतने में ही पाण्डुनन्दन नकुल होश में आकर मुँह बाये हुए यमराज के समान पुनः सुबल पुत्र का सामना करने के लिये आगे बढे़। भरतश्रेष्ठ! इन्होंने कुपित होकर शकुनि को साठ बाणों से घायल कर दिया। फिर उसकी छाती में इन्होंने सौ नाराच मारे।। तत्पश्चात् नकुल ने शकुनि के बाणसहित धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट दिया और तुरंत ही उसकी ध्वजा को भी काटकर रथ से भूमि पर गिरा दिया।। 14।। इसके बाद एक पानीदार पैने एवं तीखे बाण से पाण्डुनन्दन नकुल ने शकुनि की दोनों जाँघों को विदीर्ण करके व्याध द्वारा विद्वत हुए पंखयुक्त बाज पक्षी के समान उसे गिरा दिया।। महाराज! उस बाण से अत्यन्त घायल हुआ शकुनि, जैसे कामी पुरूष कामिनी का आलिंगन करता है, उसी प्रकार ध्वज-यष्टि (ध्वजा के डंडे) को दोनों भुजाओं से पकड़कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। निष्पाप नरेश! आपके साले को बेहोश पड़ा देख सारथि रथ के द्वारा शीघ्र ही उसे सेना के आगे से दूर हटा ले गया।। फिर तो कुन्ती के पुत्र और उनके सेवक बड़े जोर से सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार रणभूमि में शत्रु को परास्त करके क्रोध में भरे हुए शत्रुसंतापी नकुल ने अपने सारथि से कहा- ‘सूत! मुझे द्रोणाचार्य की सेना के पास ले चलो’। राजन्! माद्रीकुमार का वह वचन सुनकर सारथि उस रथ के द्वारा जहाँ द्रोणाचार्य खड़े थे, वहाँ तत्काल जा पहुँचा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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