महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 173 श्लोक 20-41

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त्रिसप्तत्यधिकशततम (173) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद

उस रणभूमि में अचेत होकर भागते हुए अपने योद्धा को भी वे कर्ण ही समझ लेते और उसी से डरकर भागने लगते थे।। भारत! भयभीत होकर भागते हुए उन सैनिकों के पीछे बाणों की वर्षा करता हुआ कर्ण बड़े वेग से धावा करता था। महामनस्वी कर्ण के द्वारा काल के गाल में भेजे जाते हुए मोहित एवं अचेत पान्चाल सैनिक एक दूसरे की ओर देखते हुए कहीं भी ठहर न उसे। राजन्! कर्ण और द्रोणाचार्य के चलाये हुए उत्तम बाणों से घायल होकर पान्चाल सैनिक सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखते हुए भाग रहे थे। उस समय राजा युधिष्ठिर ने अपनी सेना को भागती देख स्वयं भी युद्धभूमि से हट जाने का विचार करके अर्जुन से इस प्रकार कहा-। ‘पार्थ! महाधनुर्धर कर्ण को देखो, वह हाथ में धनुष लिये खड़ा है और इस भयंकर आधी रात के समय सूर्य के समान तप रहा है। ‘अर्जुन! कर्ण के बाणों से घायल होकर अनाथ के समान चीखते-चिल्लाते हुए तुम्हारे सहायक बन्धुओं का यह आर्तनाद निरन्तर सुनायी दे रहा है। ‘कर्ण कब बाणों को धनुष पर रखता है और कब उन्हें छोड़ता है, इसमें तनिक भी अन्तर मुझे नहीं दिखायी देता है। इससे जान पड़ता है यह निश्चय ही हमारी सारी सेना का संहार कर डालेगा। ‘धनंजय! अब यहाँ कर्ण के वध के सम्बन्ध में तुम्हें जो समयोचित कर्तव्य दिखायी देता हो, उसे करो’। महाराज! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से बोले- ‘प्रभो! आज कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर राधा पुत्र कर्ण के पराक्रम से भयभीत हो गये हैं। ‘ऐसी अवस्था में कर्ण की सेना के पास हमारा जो समयोचित कर्तव्य हो, उसका आप शीघ्र निश्चय करें, क्योंकि हमारी सेना बारंबार भाग रही है। ‘मधुसूदन! द्रोणाचार्य के बाणों से घायल और कर्ण से भयभीत होकर भागते हुए हमारे सैनिक कहीं भी ठहर नहीं पाते हैं। ‘मैं देखता हूँ, कर्ण निर्भय सा विचर रहा है और भागते हुए श्रेष्ठ रथियों पर भी पीछे से तीखे बाणों की वर्षा कर रहा है। ‘वृष्णिसिंह! जैसे सर्प किसी के चरणों का स्पर्श नहीं सह सकता, उसी प्रकार मैं युद्ध के मुहानों पर अपनी आँखों के सामने कर्ण का इस प्रकार विचरना नहीं सह सकूँगा। ‘मधुसूदन! अतः आप शीघ्र वहीं चलिये, जहाँ महारथी कर्ण है। आज मैं इसे मार डालूँगा या यह मुझे (मार डालेगा)’।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कुन्तीनन्दन! आज युद्धस्थल में मैं पुरूषसिंह कर्ण को देवराज इन्द्र के समान अमानुषिक पराक्रम प्रकट करते और विचरते देख रहा हूँ।। पुरूषसिंह धनंजय! संग्रामभूमि में तुम्हें अथवा राक्षस घटोत्कच को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो इसका सामना कर सके। निष्पाप महाबाहु अर्जुन! इस समय रणक्षेत्र में सूतपुत्र के साथ तुम्हारा युद्ध करना मैं उचित नहीं मानता। क्योंकि उसे पास इन्द्र की दी हुई शक्ति है, जो प्रज्वलित उल्का के समान प्रकाशित होती है। महाबाहो! सूत पुत्र ने युद्धस्थल में तुम्हारे ऊपर प्रयोग करने के लिये ही इस शक्ति को सुरक्षित रक्खा है, यह बड़ा भयंकर रूप धारण करती है। अतः मेरी राय में इस समय महाबली घटोत्कच ही राधा पुत्र कर्ण का सामना करने के लिये जाय, क्योंकि वह बलवान् भीमसेन का बेटा है, देवताओं के समान पराक्रमी है तथा उसे पास राक्षस-सम्बन्धी एवं असुर-सम्बन्धी सभी प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्र हैं। घटोत्कच तुम लोगों का हितैषी है और सदा तुम्हारे प्रति अनुराग रखता है। वह रणभूमि में कर्ण को जीत लेगा, इसमें मुझे संशय नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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