महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 186 श्लोक 41-60
षडशीत्यधिकशततम (186) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )
यह देश द्रोणाचार्य ने तीखे भल्लों से उन दसों तोमरों को काटकर अपने बाणों के द्वारा सुवर्ण एवं वैदूर्यमणि से विभूषित उस शक्ति के भी टुकड़े-टुकड़े कल डाले। तत्पश्चात् शत्रुमर्दन आचार्य द्रोण ने दो पानीदार भल्लों से मारकर राजा द्रुपद और विराट को यमराज के पास भेज दिया। विराट, द्रुपद, केकय, चेदि, मत्स्य और पाञ्चाल योद्धाओँ तथा राजा द्रुपद के तीनों वीर पौत्रों के मारे जाने पर द्रोणाचार्य का वह कर्म देखकर क्रोध और दुःख से भरे हुए महामनस्वी धृष्टद्युम्न ने रथियों के बीच में इस प्रकार शपथ खायी-। 'आज जिसके हथ से द्रोणाचार्य जीवित छूट जायँ अथवा जिसे वे पराजित कर दें, वह यज्ञ करने तथा कुआँ-बावली बनवाने एवं बगीचे लगाने आदि के पुण्यों से वञ्चित हो जाय। क्षत्रियत्व और ब्राह्मणत्व से भी गिर जाय'। इस प्रकार उन सम्पूर्ण धनुर्धरों के बीच में प्रतिज्ञा करके शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाञ्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न अपनी सेना के साथ द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। एक ओर से पाण्डवों सहित पाञ्चाल सैनिक द्रोणाचार्य को मार रहे थे और दूसरी ओर से दुर्योधन, कर्ण, सुबल पुत्र शकनि तथा दुर्योधन के मुख्य-मुख्य भाई उस युद्ध में आचार्य की रक्षा कर रहे थे। उन सम्पूर्ण महारथियों द्वारा सुरक्षित हुए द्रोणाचार्य की ओर पाञ्चाल सैनिक प्रयत्न करने पर भी आँख उठाकर देख तक न सके। आर्य! तब वहाँ पुरुषप्रवर भीमसेन धृष्टद्युम्न पर कुपित हो उठे और उन्हें भयंकर वाग्बाणों द्वारा छेदने लगे।
भीमसेन बोले- द्रुपद के कुल में जन्म लेकर और सम्पूर्ण अस्त्रों का सबसे बड़ा विद्वान् होकर भई कौन स्वाभिमानी क्षत्रिय शत्रु को सामने खड़ा हुए देख सकेगा?।। शत्रु के हाथ से पिता और पुत्र का वध पाकर, विशेषतः राजाओं की मण्डली में शपथ खाकर कौन पुरुष उस शत्रु की रक्षा करेगा? धनुष-बाणरूपी ईंधन से युक्त हो तेज से अग्नि के समान प्रज्वलित होने वाले ये द्रोणाचार्य अपने प्रभाव से क्षत्रियों को दग्ध कर रहे हैं। ये जब तक पाण्डवसेना को समाप्त नहीं कर लेते, उसके पहले ही मैं द्रोण पर आक्रमण करता हूँ। वीरो! तुम खड़े होकर मेरा पराक्रम देखो। ऐसा कहकर भीमसेन ने कुपित हो धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणों द्वारा आपकी सेना को खदेड़ते हुए द्रोणाचार्य के सैन्यदल में प्रवेश किया। इसी प्रकार पाञ्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने भी आपकी विशाल सेना में घुसकर रणभूमि में द्रोणाचार्य पर चढ़ाई की। उस समय बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। राजन्! उसदिन सूर्योदय के समय जैसा महान् जन-संहारकारी संग्राम हुआ, वैसा हमने पहले न तो कभी देखा था और न सुना ही था। माननीय नरेश! उस युद्ध में रथों के समूह परस्पर सटे हुए ही दिखायी देते थे और देहधारियों के शरीर मरकर बिखरेहुए थे। कुछ योद्धा अन्यत्र जाते हुए मार्ग में दूसरे योद्धाओँ के आक्रमण के शिकार हो जाते थे। कुछ लोग युद्ध से विमुख होकर भागते समय पीठ और पार्श्वभागों में विपक्षियों के बाणों की चोट सहते थे। इस प्रकार वह अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध हो ही रहा था कि क्षणभर में प्रातःसंध्या की वेला में सूर्यदेव का पूर्णतः उदय हो गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणवधपर्व में संकुलयुद्ध विषयक विषयक एक सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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