महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 189 श्लोक 21-43
एकोननवत्यधिकशततम (189) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )
बचपन की सारी बातें याद करके वे दोनों वीर एक दूसरे की ओर देखते हुए बारंबार प्रसन्नतापूर्वक मुसकरा उठते थे। तदन्दर राजा दुर्योधन अपने बर्ताव की निरन्तर निन्दा करते हुए वहां अपने प्रिय सखा सात्यकि से इस प्रकार कहा-। सखे! क्रोध को धिक्कार है, लोभ को धिक्कार है, मोह को धिक्कार है, अमर्ष को धिक्कार है, इस क्षत्रियोचित आचार को धिक्कार है तथा औरस बल को भी धिक्कार है। शिनिप्रवर! इन क्रोध, लोभ आदि के अधीन होकर तुम मुझे अपने बाणों का निशाना बनाते हो और तुम्हें मैं वैसे तो मुझ प्राणों से भी बढ़कर प्रिय रह हो और मैं भी तुम्हारा सदा ही प्रीति पात्र राह हूं। हम दोनों के बचपन में परस्पर जो बर्ताव रहे है, उन सबको इस समय मैं याद कर रहा हूं, परन्तु अब इस समराजगण में हमारे वे सभी सद्व्यवहार जीर्ण हो गये है। सात्वत वीर ! आज का यह युद्ध ही क्रोध और लोभ के सिवा दूसरा क्या है उत्त्ाम अस्त्रों के ज्ञाता सात्यकि ने हंसते हुए तीखे बाणों को उपर उठाकर वहां पूवोक्त बातें करने वाले दुर्योधन को इस प्रकार उत्तर दिया-। राजकुमार ! कौरव नरेश ! न तो यह सभा है और न आचार्य का घर ही है जहां एकत्र होकर हम सब लोग खेला करते थे। दुर्याधन बोला शिनिप्रवर ! हमारा बचपन का वह खेल कहां चला गया और फिरयह युद्ध कहां से आ धमका हाय ! कालका उल्लंघन करना अत्यन्त ही कठिन है । हमें धन से या धन पाने की इच्छा से क्या प्रयोजन है जो हम सब लोग यहां धन के लोभ से एकत्र होकर जुझ रहे हैं।
संजय कहते है- महाराज ! ऐसी बात कहने वाले राजा दुर्योधन से सात्यकि ने इस प्रकार कहा- राजन् ! क्षत्रियों का सनातन आचार ही ऐसा है कि वे यहां गुरूजनों के साथ भी युद्ध करते है। यदि मैं तुम्हारा प्रिय हूं तो तुम मुझे शीघ्र मार डालो, विलम्ब न करो। भरतश्रेष्ठ ! तुम्हारे ऐसा करने पर मैं पुण्यवानों के लोकों में जाउंगा। तुमसे जितनी शक्ति और बल है, वह सब शीघ्र मेरे उपर दिखाओ, क्योंकि मैं अपने मित्रों का वह महान संकट नहीं देखना चाहता हूं। इस प्रकार स्पष्ट बोलकर दुर्योधन की बात का उत्त्ार दे साथ्यकि ने नि:शंगत होकर तुरंत आगे बढे, उन्होंने अपने उपर दया नहीं दिखायी। राजन् सामने आते हुए उन महाबाहु सात्यकि को आपके पुत्र ने रोका और उन्हें बाणों से ढक दिया। तदन्तर हाथी और सिंह के समान क्रोध में भरे हुए उन कुरूवंशी और मधुवंशी सिंहों में परस्पर घोर युद्ध होने लगा। तत्पश्चात कुपित हुए दुर्योधन ने धनुष को पूर्णत: खींचकर छोड़ गये दस बाणों द्वारा रण दुर्मद सात्यकि को घायल कर दिया। इसी प्रकार सात्यकि ने भी युद्ध स्थल में पहले पचास, फिर तीस और फिर दस बाणों द्वारा दुर्योधन को बींध डाला और उसे भी अपने बाणों की वर्षा से ढक दिया । राजन् ! तब हंसते हुए आपके पुत्र धनुष को कान तक खींचकर छोडे हुए तीखे बाणों द्वारा रणभूमि में सात्यकि ने क्षत-विक्षत कर डाला। इसके बाद उसने क्षुरप्र से सात्यकि के बाण सहित धनुष को काटकर उसके दो टुकडे कर डाले। तब सात्यकि ने दूसरा सुदृढ धनुष हाथ में लेकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाते हुए वहां आपके पुत्र पर बाणों की श्रेणियां बरसानी आरम्भ कर दीं। वध के लिय अपने उपर सहसा आती हुए उन बाण पंक्तियों के राजा दुर्योधन ने अनेक टुकडे कर डाले, इससे सब लोग हर्षध्वनि करने लगे। फिर शिलापर साफ किये हुए सुनहरी पांखवाले तिहत्तर बाणों से, जो धनुष को कान तक खींचकर छोडे़ गये थे, दुर्योधन ने वेगपूर्वक सात्यकि को पीडित कर दिया। तब सात्यकि ने संधान करते हुए दुर्योधन के बाणों और जिस पर वह बाण रखा गया था उस धनुष को तुरंत ही काट डाला तथा बहुत-से बाण मारकर दुर्योधन को भी घायल कर दिया।
« पीछे | आगे » |