महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 197 श्लोक 17-34

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सप्‍तनवत्‍यधिकशततम (197) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: सप्‍तनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद

धनंजय ! भगवान श्रीकृष्‍ण के रहते हुए भी तुम द्रोण पुत्र की प्रशंसा करते हो, जो तुम्‍हारी पूरी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। स्‍वयं ही अपने दोषों का वर्णन करते हुए तुम्‍हें लज्‍जा क्‍यों नहीं आती है ? आज मैा अपनी इससुवर्ण भूषित भयंकर एवं भारी गदा को क्रोधपूर्वक घुमाकर इस पृथ्‍वीको विदीर्ण कर सकता हूं, पर्वतों को चूर-चूर करके‍ बिखेर सकता हूं तथा प्रचण्‍ड आंधी की तरह पर्वत पर प्रकाशित होने वाले उंचे-उंचे वृक्षों को भी तोड़ और उखाड़ सकता हूं। पार्थ ! असुर, नाग, मानव तथा राक्षसगणों सहित सम्‍पूर्ण देवता और इन्‍द्र भी आज जाये तो मैं उन्‍हें बाणों द्वारा मारकर भगा सकता हूं। अमित पराक्रमी नरश्रेष्‍ठ अर्जुन ! मुझे अपने भ्राता को ऐसा जानकर तुम्‍हें द्रोण पुत्र से भय नहीं करना चाहिए ।। अथ्‍वा अर्जुन ! तुम अपने समस्‍त भाईयों के साथ यहीं खड़े रहो। मैं हाथ में गदा लेकर इस महा समर में अकेला ही अश्‍वत्‍थामा को परास्‍त करूंगा। तदनन्‍तर जैसे पूर्वकाल में अत्‍यंत क्रद्ध होकर दहाड़ते हुए नृसिंहावतार धारी भगवान विष्‍णु से दैत्‍यराज हिरण्‍यकशिपु ने बातें की थी, उसी प्रकार वहां अर्जुन से पांचाल राजकुमार धृष्‍टधुम्न ने इस प्रकार कहा।

धृष्‍टधुम्न बोला - अर्जुन ! यज्ञ करना और कराना, वेदों को पढ़ना और पढ़ाना तथा दान देना और प्रतिग्रह स्‍वीकार करना - ये छ: कर्म ही ब्राहृाणों के लिये मनीषी पुरूषों में प्रसिद्ध हैं । इनमें से किस कर्म में द्रोणाचार्य प्रतिष्ठित थे । अपने धर्म से भ्रष्‍ट होकर उनहोंने क्षत्रिय धर्म का आश्रय ले रक्‍खा था। पार्थ ! ऐसी अवस्‍था में यदि मैनें द्रोणाचार्य का वध किया तो तुम इसके लिये मेरी निन्‍दा क्‍यों करते हो । व नीच कर्म करने वाला ब्राहृाण दिव्‍यास्‍त्रों द्वारा हम लोगों का संहार करता था। कुन्‍तीनन्‍दन ! जो ब्राहृाण कहलाकर भी दूसरों के लिये माया का प्रयोग करता हो और असहाय हो उठा हो, उसे यदि कोई माया से मार डाले तो इसमें अनुचित क्‍या है ? मेरे द्वारा द्रोणाचार्य के इस अवस्‍था में मारे जाने पर यदि द्रोण पुत्र क्रोधपूर्वक भयानक गर्जना करता हो तो उसमें मेरी क्‍या हानि है ? मैं इसे कोई अद्भूत बात नहीं मान रहा हूं, अश्‍वत्‍थामा इस युद्ध के द्वारा कौरवों को मरवा डालेगा, क्‍योंकि वह स्‍वयं उनकी रक्षा करनें में असमर्थ है। इसके सिवा तुम धार्मिक होकर जो मुझे गुरू की हत्‍या करने वाला बता रहे हो, वह भी ठीक नहीं है, क्‍योंकि मैं इसीलिये अग्नि कुण्‍ड से पांचाल राज का पुत्र होकर उत्‍पन्‍न हुआ था। धनंजय ! रणभूमि में युद्ध करते समय जिसके लिये कर्तव्‍य और सकर्तव्‍य दोनों समान हों, उसे तुम ब्राहृाण अथवा क्षत्रिये कैसे कह सकते हो ? पुरूषप्रवर ! जो क्रोध से व्‍याकूल होकर ब्रहृास्‍त्र न जानने वालों को भी ब्रहृास्‍त्र से ही मार डाले, उसका सभी उपायों से वध करना कैसे उचित नहीं ? धर्म और अर्थ का तत्‍व जानने वाले अर्जुन ! जो अपना धर्म छोड़कर परधर्म ग्रहण कर लेता है, उस विधर्मी को धर्मज्ञ पुरूषों ने धर्मात्‍माओं के लिये विष के तुल्‍य बताया है । यह सब जानते हुए भी तुम मेरी निन्‍दा क्‍यों करते हो ? बीभत्‍सों ! द्रोणाचार्य क्रूर एवं नृशंस थे, इसलिये मैनें रथपर ही आक्रमण करके उनको मार गिराया । अत: मैं निन्‍दा का पात्र नहीं हूं । फिर तुम किस लिये मेरा अभिनन्‍दन नहीं करते हो ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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