महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 122 श्लोक 18-38

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द्वाविशत्‍यधिकशततम (122) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: द्वाविशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद

‘केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान अर्जुन के बाण जब तक तुम्हारे शरीर में नहीं घुस रहे हैं, तब तक ही तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘महामनस्वी कुन्ती कुमार तब तक तुम्हारे सौ भाइयों को रणक्षेत्र में मारकर यह सारी पृथ्वी तुमसे छान नहीं लेते हैं, तभी तक तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘जब तक धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर तथा युद्ध की प्रशंसा करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण क्रोध नहीं करते हैं, तभी तक तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘जब तक महाबाहु भीमसेन विशाल कौरव सेना में घुसकर तुम्हारे सारे भाइयों को दबोच नहीं लेते हैं, तभी तक तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। ‘पूर्वकाल में भीष्मजी ने तुम्हारे भाई दुर्योधन से यह कहा था कि ‘सौम्य ! पाण्डव युद्ध में अजेय हैं। तुम उनके साथ संधि कर लो।’ परंतु तुम्हारे मूर्ख भ्राता दुर्योधन ने यह कार्य नहीं किया। ‘अतः अब तुम रधक्षेत्र में धैर्य धारण करके प्रयत्न पूर्वक पाण्डवों के साथ युद्ध करो। मैंने सुना है भीमसेन तुम्हारा भी खून पीयेंगे। भीमसेन की वा प्रतिज्ञा झूठी नहीं है। वह उसी रूप में सत्य होगी। ‘ओ मूर्ख ! क्या तुम भीमसेन के पराक्रम को नहीं जानते, जो तुमने उनके साथ वैर ठाना और अब युद्ध से भागे जा रहे हो ? ‘भरतनन्दन ! अब तुम शीघ्र ही इसी रथ के द्वारा जहाँ सात्यकि खड़े हैं, वहाँ जाओ। तुम्हारे नद रहने से सारी सेना भाग जायेगी। तुम अपने लाभ के लिये रण क्षेत्र में सत्य पराक्रमी सात्यकि के साथ युद्ध करो’। द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर आपका पुत्र दुःशासन कुछ भी नहीं बोला। वह उनकी सुनी हुई बातों को भी अनसुनी सी करके उसी मार्ग पर चल दिया, जिससे सात्यकि गये थे। उसने युद्ध से पीछे न हटने वाले म्लेच्छों की विशाल सेना के साथ समरांगण में सात्यकि के पास पहुँकर उनके साथ प्रयत्नपूर्वक युद्ध आरम्भ किया। इधर रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी क्रोध में भरकर मध्यम वेग का आश्रय ले पान्चालों और पाण्डवों पर टूट पड़े। द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में पाण्डवों की विशाल सेना में प्रवेश करके उनके सैंकड़ों और हजारों सैनिको को भगाने लगे।
महाराज ! उस समय आचार्य द्रोण युद्धस्थल में अपना नाम सुना-सुना कर पाण्डव, पान्चाल तथा मत्स्यदेशीय सैनिकों का महान् संहार करने लगे। इधर - उधर घूम - घूमकर समस्त सेनाओं को पराजित करते हुए द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये उस समय तेजस्वी पान्चालकुमार वीरकेतु आया। उसने झुकी हुई गाँठ वाले पाँच बाणौं द्वारा द्रोणाचार्य को घायल करके एक से उनके ध्वज को और सात बाणों से उनके सारथियों को भी बेध दिया। महाराज ! उस युद्ध में मैंने यह अद्भुत बात देखी कि द्रोणाचार्य उस वेगशाली पान्चाल राजकुमार वीरकेतु की ओर बढ़ न सके। माननीय नरेश ! द्रोणाचार्य को रणक्षेत्र में अवरुद्ध हुआ देख धर्मपुत्र की विजय चाहने वाले पान्चालों ने सब ओर से उन्हें घेर लिया। राजन् ! उन्होंने अग्नि के समान तेजस्वी बाणों, बहुमूल्य तोमरों तथा नाना प्रकार के शस्त्रों की वर्षा करके अकेले द्रोणाचार्य को ढक दिया। नरेश्वर ! द्रोणाचार्य अपने बाण समूहों द्वारा चारों ओर से उन समस्त अस्त्र - शस्त्रों के टुकड़े - टुकड़े करके आकाश में महान् मेघों की घटा को छिन्न - भिन्न करने के पश्चात् प्रवाहित होने वाले वायुदेव के समान सुशोभित हो रहे थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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