महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 138 श्लोक 1-20

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अष्टात्रिंशदधिकशतकम (138) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध

धृतराष्ट्र बोले - सूत संजय ! इसमें विशेषतः मेरा ही अन्याय है - यह मैं स्वीकार करता हूँ। इस समय शोक में डूबे हुए मुझको मेरे उसी अन्याय का फल प्राप्त हुआ है। संजय ! अब तक मेरे मन में यह बात थी कि जो बीत गया, सो बीत गया। उसके लिये चिनता करना व्यर्थ है। परंतु अब यहाँ इस समय मेरा क्या कर्तव्य है, उसे बताओ। मैं उसका पालन अवश्य करूँगा। सूत ! मेरे अन्याय से वीरों का जो यह विनाश हुआ है, वह सब कह सुनाओ। मैं धैर्य धारण करके बैठा हूँ। संजय ने कहा - महाराज ! जल की वर्षा करने वाले दो बादलों के समान महाबली, महापराक्रमी कर्ण और भीमसेन परस्पर बाणों की वर्षा करने लगे । जिन पर भीमसेन के नाम खुदे हुए थे, वे शिला पर तेज किये हुए स्वर्णमय पंख युक्त बाण कर्ण के पास पहुँचकर उसके जीवन का उच्छेद करते हुए से उसके शरीर में घुस गये ।। इसी प्रकार कर्ण के छोड़े हुए मयूर पंख वाले सैंकड़ों और हजारों बाणों ने वीर भीमसेन को आच्छादित कर दिया। महाराज ! चारों ओर गिरते हुए उन दोनों के बाणों से वहाँ की सेनाओं में समुद्र से भी बढ़कर महान् क्षोभ होने लगा।
शत्रुदमन ! भीमसेन के धनुष से छूटे हुए विषधर सर्पों के समान भयंकर बाणों द्वारा सेना के मध्य भाग में आपके सैनिकों का वध हो रहा था। राजन् ! वहाँ गिरे हुए हाथियों, घोड़ों और पैदल मनुष्यों द्वारा ढकी हुई वह रण भूमि आँधी के उखाड़े हुए वृक्षों से आच्छादित सी दिखायी देती थी। भीमसेन के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा समरांगण में मारे जाते हुए आपके सैनिक भाग चले और आपस में कहने लगे, अरे ! यह क्या हुआ। इस प्रकार कर्ण और भीमसेन के महान् तेजस्वी बाणों द्वारा सिन्धु, सौवीर और कौरव दल की वह सेना उखड़ गयी और वहाँ से भाग खड़ी हुई। वे शूरवीर सैनिक जिनमें बहुत से लोग मारे गये थे तथा जिनके हाथी, घोड़े और रथ नष्ट हो चुके थे, भीमसेन और कर्ण को छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये । ‘अवश्य ही कुन्ती कुमारों के हित के लिये ही देचता हमें मोह में डाल रहे हैं; क्योंकि कर्ण और भीमसेन के बाणों से वे हमारी सेना का वध कर रहे हैं’। ऐसा कहते हुए आपके योद्धा भय से पीरडि़त हो बाण मारने का कार्य छोड़कर युद्ध के दर्शक बनकर खड़े हो गये।
तदनन्तर रण्र भूमि में रक्त की भयंकर नदी बह चली, जो शूरवीरों को हर्ष देने वाली और भीरु पुरुषों का भय बढ़ाने वाली थी। हाथी, घोड़े और मनुष्यों के रुधिर समूह से उसउ नदी का प्राकट्य हुआ था। वह प्राण शून्य मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों से घिरी हुई थी। भारत ! उस समय अनुकर्ण, पताका, हाथी, घोड़े, रथ, आभूषण, टूटकर बिखरे हुए स्यन्दन ( रथ ), टूक - टूक हुए पहिये, धुरी और कूबर, सुवर्ण भूषित एवं महान् टंकार शब्द करने वाले धनुष, सोने के पंख वाले बण, केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान कर्ण और भीमसेन के छोड़े हुए नाराच, प्रास, तोमर, खंग, फरसे, सोने की गदा, मुसल, पट्टिश, भाँ ति - भाँति के ध्वज, शक्ति, परिघ और विचित्र शतघ्नी आदि से उस रण भूमि की अद्भुत शोभा हो रही थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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