महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 140 श्लोक 1-15

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चत्वारिंशदधिकशतकम (140) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: चत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

सात्यकि द्वारा राजा अलम्बुष का और दुःशासन के घोड़ों का वध

धृतराष्ट्र बोले - संजय ! प्रतिदिन मेरा उज्जवल यश घटता या मन्द पड़ता जा रहा है, मेरे बहुत से योद्धा मारे गये, इसे मैं समय का ही फेर समझता हूँ। अश्वत्थामा और कर्ण के द्वारा सुरक्षित मेरी सेना में, जहाँ देवताओं का भी प्रवेश असम्भव था, क्रोध में भरे हुए अर्जुन प्रविष्ट हो गये। महान् पराक्रमी श्रीकृष्ण और भीमासेन तथा शिनि प्रवर सात्यकि का साथ होने से अर्जुन का बल तथा पराक्रम और भी बढ़ गया है ।।3।। जब से यह बात मुझे मालूम हुई है, तब से शोक मुझे उसी प्रकार दग्ध कर रहा है, जैसे काष्ठ से पैदा होने वाली आग अपने आधारभूत काष्ठ को ही जला देती है। मैं सिंधुराज जयद्रथ सहित समस्त राजाओं को काल के गाल में गया हुआ ही समझता हूँ। सिंधुराज जयद्रथ किरीटधारी अर्जुन का महान् अप्रिय करके जब उनकी आँखें के सामने आ गया है, तब कैसे जीवित रह सकता है ? संजय ! मैं अनुमान से यह देख रहा हूँ कि सिंधुराज जयद्रथ अब जीवित नहीं है। अब वह युद्ध जिस प्रकार हुआ था, वह सब यथार्थ रूप से बताओ।
संजय ! जैसे हाथी किसी पोखर मे ंप्रवेश करता है, उसी प्रकार जिन्होंने अकेले ही कुपित होकर मेरी विशाल सेना को क्षुब्ध करके बारंबार उसे मथकर उसके भीतर प्रवेश किया था, उन वृष्णिवंशी वीर सात्यकि ने अर्जुन के लिये प्रयत्न पूर्वक जैसा युद्ध किया था, उसका वर्णन करो; क्योंकि तुम कथा कहने में कुशल हो। संजय ने कहा-राजन् ! पुरुषों में प्रमुख वीर भीमसेन अर्जुन के पास जाते समय जब पूवोक्त प्रकार से कर्ण द्वारा पीडित्रत होने लगे, तब उन्हें उस अवस्था में देखकर शिनिवंश के प्रधान वीर सात्यकि ने उन नरवीरों के समूह में रथ के द्वारा भीमसेन की सहायता के लिये उनका अनुसरण किया। जैसे वज्रधारी इन्द्र वर्षाकाल में मेघ रूप से गर्जना करते हैं और जैसे सूर्य शरत्काल में प्रज्वलित होते हैं, उसी प्रकार गरजते और तेज से प्रज्वलित होते हुए सात्यकि अपने सुदृढ़ धनुष द्वारा आपके पुत्र की सेना को कँपाते हुए शत्रुओं का संहार करने लगे।
भारत ! उस युद्ध स्थल में रजत वर्ण के अश्वों द्वारा आगे बढ़ते और गरजना करते हुए मधुवंश शिरोमणि वीरवर सात्यकि को आपके सारे रथी मिलका भी रोक न सके। उस समय सोने के कवच और धनुष धारण किये, युद्ध से कभी पीठ न दिखाने वाले, राजाओं में श्रेष्ठ अलम्बुष ने अमर्ष में भरकर मधुकुल के महान् वीर सात्यकि को सहसा सामने आकर रोका। भरतनन्दन ! उन दोनों का जैसा संग्राम हुआ, वैसा दूसरा कोई युद्ध नहीं हुआ था। आपके और शत्रु पक्ष के समसत योद्धा संग्राम में शोभा पाने वाले उन दोनों वीरों को देखते ही रह गये थे। राजाओं में श्रेष्ठ अलम्बुष ने सात्यकि को बल पूर्वक दस बाण मारे। शिनि प्रवर सात्यकि ने भी बाणों द्वारा अपने पास आने से पहले ही उन समसत बाणों को काट गिराया। तब अलम्बुष ने धनुष को कान तक खींचकर अग्नि के समान प्रज्वलित, सुन्दर पंख वाले तीन तीखे बाणों द्वारा पुनः सात्यकि पर प्रहार किया। वे बाण सात्यकि के कवच को विदीर्ण करके उनके शरीर में घुस गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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