महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-19
पचदश (15) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
शल्य के साथ भीमसेन का युद्ध तथा शल्य की पराजय
धृतराष्ट्र बोले- संजय ! तुमने बहुतसे अत्यन्त विचित्र दन्दयुद्धों का वर्णन किया है, उनकी कथा सुनकर मैं नेत्रवाले लोगोंके सौभागय की स्पृहा करता हूँ । देवताओं और असुरोंके समान इस कौरव-पाण्डव-युद्ध को संसार के मनुष्य अत्यन्त आश्चर्य की वस्तु बतायेंगे । इस समय इस उत्तम युद्ध वृतान्त को सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है; अत: शल्य और सुभद्राकुमार के युद्धका वृतान्त मुझसे कहो ।
संजय ने कहा- राजन ! राजा शल्य अपने सारथि को मारा गया देख कुपित हो उठे और पूर्णत: लोहे की बनी हुई गदा उठाकर गर्जते हुए अपने उत्तम रथ से कूद पड़ें । उन्हें प्रलयकाल की प्रज्वलित अग्नि तथा दण्डधारी यमराजके समान आते देख भीमसेन विशाल गदा हाथ में लेकर बड़े वेग से उनकी और दौड़े । उधर से अभिमन्यु भी वज्रके समान विशाल गदा हाथ में लेकर आ पहुँचा और आओ, आओ कहकर शल्य को ललकारने लगा । उस समय भीमसेन ने बड़े प्रयत्न से उसको रोका। सुभद्राकुमार अभिमन्यु को रोककर प्रतापी भीमसेन राजा शल्य के पास जा पहुँचे और समरभूमि में पर्वतके समान अविचल भाव से खड़े हो गये। इसी प्रकार मद्रराज शल्य भी महाबली भीमसेन को देखकर तुरंत उन्ही की ओर बढ़े, मानो सिंह किसी गजराज पर आक्रमण कर रहा हो । उस समय सहस्त्रों रणवाघों और शंखों के शब्द वहां गॅूज उठे । वीरोंके सिंहनाद प्रकट होने लगे और नगाड़ों के गंभीर घोष सर्वत्र व्याप्त हो गये । एक दूसरे की ओर दौड़ते हुए सैकड़ों दर्शकों, कौरवों और पाण्डवोंके साधुवाद का महान शब्द वहां सब ओर गॅूजने लगा । भरतनन्दन ! समस्त राजाओं मे मद्रराज शल्य के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं था, जो युद्धमें भीमसेन के वेग को सहने का साहस कर सके । इसी प्रकार संसार में भीमसेन के सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध में महामनस्वी मद्रराज शल्यकी गदा के वेगको सह सकता है । उस समय भीमसेन के द्वारा घुमायी गयी विशाल गदा सुवर्णपत्र से जटित होने के कारण अग्नि के समान प्रज्वलित हो रही थी । वह वीरजनों के ह्रदय में हर्ष और उत्साह की वृद्धि करने वाली थी । इसी प्रकार गदायुद्ध के विभिन्न मार्गो और मण्डलों से विचरते हुए महाराज शल्य की महाविधुत के समान प्रकाशमान गदा बड़ी शोभा पा रही थी । वे शल्य और भीमसेन दोनो गदारूप सींगों को घुमा-घुमाकर सॉड़ो की भॉति गरजते हुए पैतरे बदल रहे थे ।मण्डलाकार घूमने के मार्गो (पैतरों) और गदा के प्रहारो में उन दोनो पुरूषसिंहों की योग्यता एक-सी जान पडती थी । उस समय भीमसेन की गदा से टकराकर शल्य की विशाल एवं महाभयंकर गदा आग की चिनगारियॉ छोड़ती हुई तत्काल छिन्न-भिन्न होकर बिखर गयी । इसी प्रकार शत्रुके आघात करनेपर भीमसेन की गदा भी चिनगारियॉ छोड़ती हुई वर्षाकाल की संध्या के समय जुगनुओं से जगमगाते हुए वृक्ष की भॉति शोभा पाने लगी । भारत ! तब मद्रराज शल्य ने समरभूमि में दूसरी गदा चलायी, जो आकाश को प्रकाशित करती हुई बारंबार अंगारों की वर्षा कर रही थी ।
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