महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-16
त्रयस्त्रिश (33) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
दुर्योधन का उपालम्भ, द्रोणाचार्य की प्रतिज्ञा और अभिमन्युवध के वृतान्त का संक्षेप से वर्णन
संजय कहते हैं – महाराज ! जब अमित तेजस्वी अर्जुन ने पहले ही हम सब लोगो को भगा दिया, द्रोणाचार्य का संकल्प व्यर्थ हो गया तथा युधिष्ठिर सर्वथा सुरक्षित रह गये, तब आपके समस्त सैनिक द्रोणाचार्य की सम्मति से युद्ध बंद करके भय से उत्पन्न उद्धिग्न हो दसों दिशाओं की ओर देखते हुए शिविर की ओर चल दिये । वे सब के सब युद्ध में पराजित होकर धूल में भर गये थे । उनके कवच छिन्न-भिन्न हो गये तथा कभी न चूकनेवाले अर्जुन के बाणों से विदीर्ण होकर वे रणक्षेत्र में अत्यन्त उपहास के पात्र बन गये । समस्त प्राणी अर्जुन के असंख्य गुणों की प्रंशसा तथा उनके प्रति भगवान् श्रीकृष्ण के सौहार्द का बखान कर रहे थे । उस समय आपके महारथीगण कलकित से हो रहे थे । व ध्यानस्थ से होकर मूक हो गये थे । तदनन्तर प्रात:काल दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर उनसे कुछ कहनेको उघत हुआ । शत्रुओं के अभ्युदय से वह मन ही मन बहुत दुखी हो गया था । द्रोणाचार्य के प्रति उसके ह्रदय में प्रेम था । उसे अपने शौर्य पर अभिमान भी था । अत: अत्यन्त कुपित हो बातचीत में कुशल तथा राजा दुर्योधन ने समस्त योद्धाओं के सुनते हुए इस प्रकार कहा । द्धिजश्रेष्ठ ! निश्चय ही हमलोग आपकी दृष्टि में शत्रुवर्ग के अन्तर्गत हैं । यही कारण है कि आज आपने अत्यन्त निकट आने पर भी राजा युधिष्ठिर को नही पकड़ा है । रणक्षेत्र में कोई शत्रु आपके नेत्रों के समक्ष आ जाय और उसे आप पकड़ना चाहें तो सम्पूर्ण देवताओं के साथ सारे पाण्डव उसकी रक्षा क्यों न कर रहे हों, निश्चय ही वह आपसे छूटकर नहीं जा सकता । आपने प्रसन्न होकर पहले तो मुझे वर दिया और पीछे उसे उलट दिया; परंतु श्रेष्ठ पुरूष किसी प्रकार भी अपने भक्त की आशा भंग नही करते है। दुर्योधन के ऐसा कहने पर द्रोणाचार्य को तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई । वे दुखी होकर राजा से इस प्रकार बोले-राजन् ! तुमको मुझे इस प्रकार प्रतिज्ञा भग करने वाला नहीं समझना चाहिये । मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारा प्रिय करने की चेष्टा कर रहा हॅू। पंरतु एक बात याद रखों, किरीटधारी अर्जुन रणक्षेत्र में जिसकी रक्षा कर रहे हों, उसे देवता, असुर, गान्धर्व, यक्ष, नाग तथा राक्षसों सहित सम्पूर्ण लोक भी नहीं जीत सकते । जहॉ जगत्स्त्रष्टा भगवान श्रीकृष्ण तथा अर्जुन सेनानायक हों, वहॉ भगवान शंकर के सिवा दूसरे किस पुरूष का बल काम करता है । तात ! आज मैं एक सच्ची बात कहता हॅू, यह कभी झूठी नहीं हो सकती । आज मैं पाण्डव पक्ष के किसी श्रेष्ठ महारथी को अवश्य मार गिराऊँगा । राजन् ! आज उस व्यूह का निर्माण करूँगा, जिसे देवता भी तोड़ नही सकते; परंतु किसी उपाय से अर्जुन को यहॉ से दूर हटा दो । युद्ध के सम्बन्ध मे कोई ऐसी बात नहीं है, जो अर्जुन के लिये अज्ञात अथवा असाध्य हो । उन्होंने इधर-उधर से युद्ध विषयक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर पुन: संशप्तकगणों ने दक्षिण दिशा में जा अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारा ।
'
« पीछे | आगे » |