महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 52 श्लोक 23-45

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द्विपञ्चाशत् (52) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: द्विपञ्चाशत् अध्याय: श्लोक 23-45 का हिन्दी अनुवाद

वह उपाख्‍यान समस्‍त पाप राशि का नाश करनेवाला है । मैं इसका वर्णन करता हूं, सुनो । यह धन और आयु को बढ़ानेवाला, शोकनाशक, पुष्टिवर्धक, पवित्रत्र, शत्रु समूहका निवारक ओर मगलकारी कार्यो में सबसे अधिक मगलकारक है । जैसे वेदों का स्‍वाध्‍याय पुण्‍यदायक होता है, उसी प्रकार यह उपाख्‍यान भी है । महाराज ! दीर्धायु पुत्र, राज्‍य और धन-सम्‍पति चाहनेवाले श्रेष्‍ट राजाओं को प्रतिदिन प्रात:काल इस इतिहास का श्रवण करना चाहिये । तात ! प्राचीनकाल की बात है, सत्‍ययुग में अकम्‍पन नाम से प्रसिद्ध एक राजा थे । वे युद्ध में शत्रुओं के वश मे पड़ गये । राजा के एक पुत्र था ,जिसका नाम था हरि । वह बल में भगवान नारायण के समान था । वह अस्‍त्रविद्या में पारंगत, मेधावी, श्रीसम्‍पन्‍न तथा युद्ध में इन्‍द्रके तुल्‍य पराक्रमी था । वह रणक्षेत्र में शत्रुओं द्वारा घिर जानेपर शत्रुपक्ष के योद्धाओं और गजारोहियों पर बारंबार सहस्‍त्रों बाणों की वर्षा करने लगा । युधिष्ठिर ! वह शत्रुओं को संताप देनेवाला वीर राजकुमार संग्राम में दुष्‍कर पराक्रम दिखाकर अन्‍त में शत्रुओं के हाथ से वहां सेना के बीच में मारा गया । राजा अकम्‍पन को बड़ा शोक हुआ । वे पुत्र का अत्‍येष्टि संस्‍कार करके दिन-रात उसी के शोक में मग्‍न रहने लगे । उनकी अन्‍तरात्‍मा को (थोडा सा भी) सुख नही मिला । राजा अकम्‍प्‍न को अपनेपुत्र की मृत्‍यु से महान शोक हो रहा है, यह जानकर देवर्षि नारद उनके समीप आये । उस समय महाभाग राजा अकम्‍पन ने देवर्षि प्रवर नारदजी को आया देख उनकी यथायोग्‍य पूजा करके उनसे अपने पुत्र की मृत्‍यु का वृतान्‍त कहा । राजाने क्रमश: शत्रुओं की विजय और युद्धस्‍थल में अपने पुत्र के मारेजाने का सब समाचार उनसे ठीक-ठीक कह सुनाया । (वे बोले) देवर्षि ! मेरा पुत्र इन्‍द्र और विष्‍णु के समान तेजस्‍वी, महापराक्रमी और बलवान था; परंतु युद्ध में बहुत से शत्रुओं ने मिलकर एक साथ पराक्रम करके उसे मार डाला है । भगवान ! यह मृत्‍यु क्‍या है ? इसका वीर्य, बल और पौरूष कैसा है ? बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ महर्षि ! मैं यह सब यथार्थरूप से सुनना चाहता हूं । राजा की यह बात सुनकर वर देने में समर्थ एवं प्रभावशाली नारदजी ने यह पुत्र शोकनाशक उत्‍तम उपाख्‍यान कहना आरम्‍भ किया । नारदजी बोले – पृथ्‍वीपते ! तुम्‍हारे पुत्र की मृत्‍यु जिस प्रकारघटित हुई है, वह सब वृतान्‍त मैने भी यथार्थरूप से सुन लिया है । महाबाहु नरेश ! अब मै तुम्‍हारे सामने एक बहुत विस्‍तृत कथा आरम्‍भ करता हूं । तुम ध्‍यान देकर सुनो । आदि सुष्टि के समय महातेजस्‍वी एवं शक्तिशाली पितामह ब्रह्माने जब प्रजा वर्गकी सृष्टि की थी, उस समय संहार की कोई व्‍यवस्‍था नही की थी, अत: इस सम्‍पूर्ण जगत् को प्राणियों से परिपूर्ण एवं मृत्‍युरहित देख प्राणियों के संहार के लिये चिन्तित हो उठे । राजन् ! पृथ्‍वीपते ! बहुत सोचने विचार ने पर भी ब्रह्माजी के प्राणियों के संहार का कोई उपया नही ज्ञात हो सका । महाराज ! उस समय क्रोधवश ब्रह्माजी के श्रवण नेत्र आदि इन्द्रियों से अग्नि प्रकट हो गयी । वह अग्नि इस जगत् को दग्‍ध करने की इच्‍छा से सम्‍पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं (कोणों) में फैल गयी । तदनन्‍तर आकाश और पृथ्‍वी में सब ओर आग की प्रचण्‍ड लपटे व्‍याप्‍त हो गयी । दाह करने में समर्थ एवं अत्‍यन्‍त शक्तिशाली भगवान अग्निदेव महान क्रोध के वेग से सबको त्रस्‍त करते हुए सम्‍पूर्ण चराचर जगत् को दग्‍ध करने लगे । इससे बहुत से स्‍थावर जंगम प्राणी नष्‍ट हो गये । तत्‍पश्‍चात् राक्षसों के स्‍वामी जटाधारी दु:खहारी स्‍थाणु नामधारी भगवान रूद्र परमेष्‍ठी भगवान ब्रह्माजी की शरण मे गये । प्रजा वर्ग क हित की इच्‍छा से भगवान रूद्र के आने पर परमदेव महामुनि ब्रह्माजी अपने तेज से प्रज्‍वलित होते हुए से इस प्रकार बोले । अपने अभीष्‍ट मनोरथ को प्राप्‍त करने योग्‍य पुत्र ! तुम मेरे मानसिक संकल्‍प से उत्‍पन्‍न हुए हो । मै तुम्‍हारी कौन-सी कामना पूर्ण करूँ ? स्‍थाणों ! तुम जो कुछ चाहते हो, बतलाओ । मै तुम्‍हारा सम्‍पूर्ण प्रिय कार्य करूँगा ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में बावनवॉ अध्‍याय पूरा हुआ ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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