महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 54 श्लोक 1-25
चतुःपञ्चाशत्तम (54) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
मृत्यु की घोर तपस्या, ब्रह्माजी के द्वारा उसे वर की प्राप्ति तथा नारद-अकम्पन संवाद का उपसंहार
नारदजी कहते हैं – राजन ! तदनन्तर वह अबला अपने भीतर ही उस दु:ख को दबाकर झुकायी हुई लता के समान विनम्र हो हाथ जोड़कर ब्रह्माजी से बोली । मृत्यु ने कहा– वक्ताओं में श्रेष्ठ प्रजापते ! आपने मुझे ऐसी नारी के रूप में क्यों उत्पन्न किया ? मै जान बूझकर वही क्रूरतापूर्ण अहितकर कर्म कैसे करूँ ? भगवन् ! मै पाप से डरती हूं । प्रभो ! मुझ पर प्रसन्न होइये ।जब मै लोगों के प्यारे पुत्रों, मित्रों, भाइयों, माताओं, पिताओं तथा पतियों को मारने लगॅूगी, देव ! उस समय उनके सम्बन्धी इन लोगों के मेरे द्वारा मारे जाने पर सदा मेरा अनिष्ट चिन्तन करेगे। अत: मै इन सबसे बहुत डरती हूं । भगवन् ! रोते हुए दीन-दुखी प्राणियों के नेत्रों से जो ऑसुओं की बॅूदें गिरती हैं, उनसे भयभीत होकर मैं आपकी शरण मे आयी हूं । देव ! सुरश्रेष्ठ ! लोकपितामह ! मैं शरीर और मस्तक को झुकाकर, हाथ जोड़कर विनीतभाव से आपकी शरणागत होकर केवल इसी अभिलाषा की पूर्ति चाहती हूं कि मुझे यमराज के भवन में न जाना पड़े । प्रजेश्वर ! मै आपकी कृपा से तपस्या करना चाहती हूं । देव ! भगवन् ! प्रभो ! आप मुझे यही वर प्रदान करें । आपकी आज्ञा लेकर मैं उत्तम धेनुकाश्रम को चली जाऊँगी और वहां आपकी ही आराधना में तत्पर रहकर कठोर तपस्या करूँगी । देवेश्वर ! मैं रोते बिलखते प्राणियों के प्यारे प्राणों का अपहरण नही कर सकूँगी, आप इस अधर्म से मुझे बचावें । ब्रह्माजी ने कहा – मृत्यो ! प्रजा के संहार के लियेही मेरे द्वारा संकल्पपूर्वक तेरी सृष्टि की गयी है । जा, तू सारी प्रजा का संहार कर । तेरे मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। यह बात इसी प्रकार होनेवाली है । इसमें कभी कोई परिवर्तन नही हो सकता । तू लोक में निन्दित न हो, मेरी आज्ञा का पालन कर ।
नारद जी कहते है – राजन ! भगवान ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर उन्ही की ओर मुंह करके हाथ जोड़े खड़ी हुई वह नारी मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई; परंतु उसने प्रजा के हित की कामना से संहार कार्यमें मन नही लगाया । तब प्रजेश्वरों के भी स्वामी भगवान ब्रह्मा चुप हो गये । फिर वे भगवान प्रजापति तुरंत अपने आप ही प्रसन्नता को प्राप्त हुए । देवेश्वर ब्रह्मा सम्पूर्ण लोकों की ओर देखकर मुसकराये । उन्होंने क्रोध शून्य होकर देखा, इसलिये वे सभी लोक पहले के समान हरे-भरे हो गये । उन अपराजित भगवान ब्रह्मा का रोष निवृत हो जानेपर वह कन्या भी उन परम बुद्धिमान् देवेश्वर के निकट से अन्यत्र चली गयी । राजेन्द्र ! उस समय प्रजा का संहार करने के विषय में कोई प्रतिज्ञा न करके मृत्यु को वहां से हट गयी और बड़ी उतावली के साथ धेनुकाश्रम मे जा पहॅुची । उसने वहां अत्यन्त कठोर और उत्तम व्रत का पालन आरम्भ किया । उस समय वह दयावश प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से अपनी इन्द्रियों को प्रिय विषयों से हटाकर इक्कीस वर्षो तक एक पैर पर खड़ी रही । नरेश्वर ! तदनन्तर पुन: अन्य इक्कीस वर्षो तक एक पैर से खड़ी होकर तपस्या करती रही । तात ! इसके बाद दस हजार वर्षो तक वह मृगों के साथ विचरती रही, फिर शीतल एवं निर्मल जलवाली पुण्यमयी नन्दानदी में जाकर उसके जल में उसने आठ हजार वर्ष व्यतीत किये । इस प्रकार नन्दानदी में नियामेंके पालनपूर्वक रहकर व निष्पाप हो गयी । तदनन्तर व्रत नियमों से सम्पन्न हो मृत्यु पहले पुण्यमयी कौशि की नदी के तद पर गयी और वहां वायु तथा जल का आहार करती हुई पुन: कठोर नियमों का पालन करने लगी । उस पवित्र कन्या ने पचगगा में तथा वेतस वन में बहुत सी भिन्न-भिन्न तपस्याओं के द्वारा अपने शरीर को अत्यन्त दुर्बल कर दिया । इसके बाद वह गगाजी के तट और प्रमुख तीर्थ महामेरू के शिखर पर जाकर प्राणायाम मे तत्परहो प्रस्तर मूर्ति की भॉति निश्चेष्ट भाव से बैठी रही । फिर हिमालय के शिखर पर जहां पहले देवताओं ने यश किया था, वहांवह परम शुभ लक्षणा कन्या एक निखर्व वर्षो तक अॅगूठे के बल पर खड़ीरही ।
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