महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 67 श्लोक 1-19
सप्तषष्टितम (67) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्युपर्व )
राजा रन्तिदेव की महत्ता नारदजी कहते है – सृंजय ! सुना है कि संस्कृति के पुत्र रन्तिदेव भी जीवित नहीं रह सके । उन महामना नरेश के यहां दो लाख रसोईये थे, जो घर पर आये हुए ब्राह्मण-अतिथियों को अमृत के समान मधुर कच्चा-पक्का उत्तम अन्न दिन-रात परोसते रहते थे । उन्होंने ब्राह्मणों को न्यायपूर्वक प्राप्त हुए धन का दान किया और चारों वेदों का अध्ययन करके धर्म द्वारा समस्त शत्रुओं को अपने वश में कर लिया ।। ३ ।। ब्राह्मणों को सोने के चमकीले निष्क देते हुए वे बार-बार प्रत्येक ब्राह्मण से यही कहते थे कि यह निष्क तुम्हारे लिये है, यह निष्क तुम्हारे लिये है । ‘तुम्हारे लिये, तुम्हारे लिये’ कहकर वे हजारों निष्क दान किया करते थे । इतने पर भी जो ब्राह्मण पाये बिना रह जाते, उन्हें पुन: आश्वासन देकर वे बहुत से निष्क ही देते थे । राजा रन्तिदेव एक दिन में सहस्त्रों कोटि निष्क दान करके भी यह खेद प्रकट किया करते थे कि आज मैंने बहुत कम दिान किया, ऐसा सोचकर वे पुन: दान देते थे । भला दूसरा कौन इतना दान दे सकता है ? । ब्राह्मणों के हाथ का वियोग होने पर मुझे सदा महान् दु:ख होगो, इसमें संदहे नहीं है । यह विचारकर राजा रन्तिदेव बहुत धन दान करते थे । सृंजय ! एक हजार सुवर्ण के बैल, प्रत्येक के पीछे सौ-सौ गायें और एक सौ आठ स्वर्ण मुद्राएं – इतने धन को निष्क कहते हैं । राजा रन्तिदेव प्रत्येक पक्ष में ब्राह्मणों को (करोडों) निष्क दिया करते थे । इसके साथ अग्निहोत्र के उपकरण और यज्ञ की सामग्री भी होती थी । उनका यह नियम सौ वर्षों तक चलता रहा । वे ऋषियों को करवे, घडे, बटलोई, पिठर, शय्या, आसन, सवारी, महल और घर, भांति-भांति के वृक्ष तथा अन्न–धन दिया करते थे । बुद्धिमान रन्तिदेव की सारी देय वस्तुएं सुवर्णमय ही होती थीं ।राजा रन्तिदेव की वह अलौकिक समृद्धि देखकर पुराणवेत्ता पुरुष वहां इस प्रकार उनकी यशोगाथा गाया करते थे । हमने कुबेर के भवन में भी पहले कभी ऐसा (रन्तिदेव के समान) भरा-पूरा धन का भंडार नहीं देखा है, फिर मनुष्यों के यहां तो हो ही कैसे सकता है ? । वास्तव में रन्तिदेव की समृद्धि का सारतत्व उनका सुवर्णमय राजभवन और स्वर्णराशि ही है । इस प्रकार विस्मित होकर लोग उस गाथा का गान करने लगे ।संकृतिपुत्र रन्तिदेव के यहां जिस रात में अतिथियों का समुदाय निवास करता था, उस समय वहां इक्कीस हजार गौएं छूकर दान की जाती थी वहां विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये रसोईये पुकार-पुकार कर कहते थे, आप लोग खूब दाल और कढी खाइये । यह आज जैसी स्वादिष्ट बनी है, वैसी पहले एक महीने तक नहीं बनी थी ।उन दिनों राजा रन्तिदेव के पास जो कुछ भी सुवर्णमयी सामग्री थी, वह सब उन्होंने उस विस्तृत यज्ञ में ब्राह्मणों को बांट दी । उनके यज्ञ में देवता और पितर प्रत्यक्ष दर्शन देकर यथासयम हव्य और कव्य ग्रहण करते थे तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण वहां सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थों को पाते थे ।श्वैत्य सृंजय ! वे रन्तिदेव चारों कल्याणमय गुणों में तुमसे बहुत बढे-चढे थे और तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा बहुत अधिक पुण्यात्मा थे । जब वे भी मर गये, तब दूसरों की क्या बात है ? अत: तुम यज्ञ और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो । एसो नारदजी ने कहा ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्यान विषयक सरसठवां अध्याय पूरा हुआ।
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