महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 79 श्लोक 19-43
एकोनाशीतितम (79) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )
राजन्। प्रभो। इस प्रकार बातें करते और अर्जुन की विजय चाहते हुए उन सभी सैनिकों की वह रात्रि महान् कष्ट से बीती थी । भगवान् श्रीकृष्ण उस रात्रि के मध्य काल में जाग उठे और अर्जुन की प्रतिज्ञा को स्मरण करके दारुक से बोले । ‘दारुक। अपने पुत्र अभिमन्यु के मारे जाने से शोकार्त होकर अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि मै कल जयद्रथ का वध कर डालूंगा । ‘यह सब सुनकर दुर्योधन अपने मन्त्रियों के साथ ऐसी मन्त्रणा करेगा’ जिससे अर्जुन समरभूमि में जयद्रथ को मार न सके । ‘वे सारी अक्षौहिणी सेनाएं जयद्रथ की रक्षा करेंगी तथा सम्पूर्ण अस्त्र-विधि के पारंगत विद्वान् द्रोणाचार्य भी अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ उसकी रक्षा में रहेगे। ‘त्रिलोक के एक मात्र वीर हैं सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्र, जो दैत्यों और दानवों के भी दर्प का दलन करने वाले है; परंतु वे भी द्रोणाचार्य से सुरक्षित जयद्रथ को युद्ध में भार नही सकते । ‘अत: मैं कल वह उद्योग करुंगा, जिससे कुन्तीपुत्र अर्जुन सूर्यदेव के अस्त होने से पहले जयद्रथ को मार डालेगे । ‘मुझे स्त्री, मित्र, कुटुम्बीजन, भाई-बन्धु तथा दूसरा कोई भी कुन्तीपुत्र अर्जुन से अधिक प्रिय नहीं है। ‘दारुक। मैं अर्जुन से रहित इस संसार को दो घड़ी भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही नही सकता (कि मेरे रहते अर्जुन का कोई अनिष्ट हो) । ‘मैं अर्जुन के लिये हाथी, घोड़े, कर्ण और दुर्योंधन सहित उन समस्त शत्रुओं को जीतकर सहसा उनका संहार कर डालूंगा ।‘दारुक। कल के महासमर में तीनों लोक धनंजय के लिये युद्ध में पराक्रम प्रकट करते हुए मेरे बल और प्रभाव को देखे । ‘दारुक। कल के युद्ध में सहस्त्रों राजाओं तथा सैकड़ों राजकुमारों को उनके घोड़े, हाथी एवं रथों सहित मार भगाऊंगा।‘तुम कल देखोगे कि मैंने समरागण में कुपित होकर पाण्डुपुत्र अर्जुन के लिये सारी राजसेना को चक्र से चूर-चूर करके धरती पर मार गिराया है ।‘कल देवता, गन्धर्व, पिशाच, नाग तथा राक्षस आदि समस्त लोक यह अच्छी तरह जान लेंगे कि मैं सव्यसाची अर्जुन का हितैषी मित्र हूं । ‘जो अर्जुन से द्वेष करता है, वह मुझ से द्वेष करता है और जो अर्जुन का अनुगामी है, वह मेरा अनुगामी है, तुम अपनी बुद्धि से यह निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है । ‘कल प्रात:काल तुम शास्त्र विधि के अनुसार मेरे उत्तम रथ को सुसज्जित करके सावधानी के साथ लेकर युद्ध स्थल में चलना । ‘सूत। कौमोद की गदा, दिव्य शक्ति, चक्र, धनुष, बाण तथा अन्य सब आवशयक सामग्रियों को रथ पर रखकर उसके पिछले भाग में समरागण में रथ पर शोभा पाने वाले वीर विनतानन्दन गरुड़ के चिह्रवाले ध्वज के लिये भी स्थान बना लेना ।‘दारुक। साथ ही उसमें छत्र लगाकर अग्नि और सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले तथा विश्वकर्मा के बनाये हुए दिव्य सुवर्णमय जालों से विभूषित मेरे चारों श्रेष्ठ घोड़ों-बला हक, मेघपुष्प, शैव्य तथा सुग्रीव को जोत लेना और स्वयं भी कवच धारण करके तैयार रहना ।‘पाच्चजन्य शंख का ऋषभ स्वर से बजाया हुआ शब्द और भयंकर कोलाहल सुनते ही तुम बड़े वेग से मेरे पास पहुंच जाना । ‘दारुक। मैं अपनी बुआजी के पुत्र भाई अर्जुन के सारे दु:ख और अमर्ष को एक ही दिन में दूर कर दूंगा । ‘सभी उपायों से ऐसा प्रयत्न करुंगा, जिससे अर्जुन युद्ध में धृतराष्ट्र पुत्रों के देखते-देखते जयद्रथ को मार डालें ।‘सार थे। कल अर्जुन जिस-जिस वीर के वध का प्रयत्न करेंगे, मैं आशा करता हूं, वहां वहां उनकी निश्चय ही विजय होगी । दारुक बोला- पुरुषसिंह। आप जिनके सारथि बने हुए हैं, उनकी विजय तो निश्चित है ही। उनकी पराजय कैसे हो सकती है ।अर्जुन की विजय के लिये कल सबेरे जो कुछ करने की आप मुझे आज्ञा देते हैं, उसे उसी रुप में मैं अवश्य पूर्ण करुंगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्व में श्रीकृष्ण और दारुक की बातचीत विषयक उन्नासीवां अध्याय पूरा हुआ।
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