महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 7 श्लोक 44-54
सप्तम (7) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
राजन ! उस समय द्रोणाचार्य को युद्ध के लिये उघत देख सृंजयों सहित पाण्डवों ने पृथक-पृथक बाणों की वर्षा करते हुए उनका सामना किया । जैसे वायु बादलों को उड़ाकर छिन्न–भिन्न कर देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के द्वारा क्षत-विक्षत हुई पाचालो सहित पाण्डवों की विशाल सेना तितर-बितर हो गयी । द्रोणने युद्धमें बहुत से दिव्यास्त्रो का प्रयोग करके क्षण-भर में पाण्डवों तथा सुजयों को पीडित कर दिया । जैसे इन्द्र दानवों को पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य से पीडित हो घृष्टयुम्न आदि पाचाल योद्धा भय से कॉपने लगे । तब दिव्यास्त्रों के ज्ञाता यज्ञसेनकुमार शूरवीर महारथी घृष्टघुम्न ने अपने बाणों की वर्षा से द्रोणाचार्य की सेना को बारंबार घायल किया । बलवान् द्रुपदपुत्र ने अपने बाणों की वर्षा से द्रोणाचार्य की बाण वृष्टि को रोककर समस्त कौरव सैनिकों को मारना आरम्भ किया । तब महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने अपनी सेना को काबूमें करके उसे युद्धस्थलमें स्थिर भाव से खड़ा कर दिया और द्रुपदकुमार धावा किया । जैसे क्रोधमें भरे हुए इन्द्र सहसा दानवों पर बाणों की बौछार करते है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य ने घृष्टघुम्न पर बाणों की बड़ी भारी वर्षा आरम्भ कर दी । जैसे सिंह दूसरे मृगों को भगा देता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के बाणों से विकम्पित हुए पाण्डव तथा सृंजय बारंबार युद्ध का मैदान छोड़कर भागने लगे। राजन ! बलवान् द्रोणाचार्य पाण्डवों का सेना में अलात चक्र की भॉति चारो ओर चक्कर लगाने लगे । यह एक अद्रुत सी बात हुई । शास्त्रोक्त विधि से निर्मित हुआ आचार्य द्रोणका वह श्रेष्ठ रथ आकाशचारी गन्धर्वनगरके समान जान पडता था । वायु के वेग से उसकी पताका फहरा रही थी । वह रथी के मनको आह्राद प्रदान करनेवाला था । उसके घोड़े उछल-उछलकर चल रहे थे । उसका ध्वज दण्ड स्फटिक मणिके समान स्वच्छ एवं उज्जवल था । वह शत्रुओं को भयभीत करने वाला था । उस श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर द्रोणाचार्य शत्रु सेना का संहार कर रहे थे ।
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