महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-20
द्वचषीतितमो (82) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )
युधिष्ठिर का प्रातःकाल उठकर स्नान और नित्यकर्म आदि से निवृत हो ब्राह्मणों को दान देना, वस्त्राभूषणों से विभूषित हो सिंहासन पर बैठना और वहां पधारे हुए भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन करना संजय कहते है-राजन् । इधर श्रीकृष्ण और दारूक-में पूर्वाक्त प्रकार से बातें हो ही रही थी कि वह रात बीत गयी। दूसरी ओर राजा युधिष्ठिर भी जाग गये। उस समय हाथ से ताली देकर गीत गाने वाले तथा माडंगलिक वस्तुओ को प्रस्तुत करने वाले सूत, मागघ और वैतालिक जन पुरूष श्रेष्ठ युधिष्ठिर स्तुति करने लगे। नर्तक नाचने और रागयुक्त कण्ठ वाने गायक कुरूकुल की स्तुति युक्त मधुर गीत गाने लगे ।भारत। सुशिक्षित एवं कुशल वादक अत्यन्त हर्ष में भरकर मृदक, झांझा, मेरी , पणव , आनक, गोमुख, आडम्बर, शंड और बडे जोर से बजने वली दुन्दुमियां तथा दुसरे प्रकार के वाद्यों को भी बजाने लगे। वाद्यों को वह मेघ के समान गम्भीर एवं महान् घोष आकाश तक फैल गया। उस ध्वनि ने सोये हुए नृपश्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर जगा दिया। बहुमूल्य एवं उत्तम शया पर सुखपूर्वक सोकर जगे हुए राजा युधिष्ठिर वहां से उठकर आवश्यक कार्य के लिये स्नान करने गये।वहां स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण किये एक सौ आठ युवक सोने के घडो में जल भरकर उन्हे नहलाने के लिये उपस्थित हुए। उस यमय एक हल्का वस्त्र पहनकर राजा युधिष्ठिर भद्रासन चैकी पर बैठ गये और चन्दन युक्त मन्त्रपूत जल से स्नान करने लगे। सबसे पहले बलवान तथ सुषिक्षित पुरूषों ने सर्वोधि आदि द्वारा तैया किये हुए उबटन से उनके शरीर को अच्छी तरह मला, फिर उन्होने अधिवासित एवं सुगन्धित जल से स्नान किया। तत्पश्चात राजंहस से यमान सफद ढीली-ढाली पगडी लेकर माथे को जल सुखाने के लिये उसे मस्तकपर लपेट लिया। फिर वे महाबाहु युधिष्ठिर अपने सारे अग्ंडा में हरिचनदन-का अनुलेपन करके नूतन वस्त्र और पुष्पमाला धारण किये हाथ जोडे पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। सत्पुरूषो के मार्ग पर चलने वाले कुन्ती कुमार युधिष्ठिर ने जपने योग्य गायत्री मंत्र का जप किया और पज्वलित अग्रि से प्रकाषित अग्रिषाला में विनीत भाव से प्रवेश किया । वहां पवित्री कुश के दो पत्तों सहित समिधाओं तथा सनत्रपूत आहुतियों से अग्रि देव की पूजा करके वे उस अग्रि होत्र- गृह से बाहर निकले। फिर शिविर की दूसरी डयोढी पार करके पुरूष सिंह राजा युधिष्ठिर वेद वेत्ता वृद्ध ब्राह्मणशिरोमणियों केा देखा। वे सबके -सब जितेन्द्रिय, वेदाध्ययन के व्रत में निष्णात, यज्ञानतस्नान से पवित्र तथा सूर्य देव के उपासक थे। वे संख्या में एक हजार आठ थे और उनके साथ एक सहस्त्र अनुचर थे। तब महाबाहु पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर अक्षत-फुल देकर उन ब्राहणो से स्वस्तिवाचन करया और उनमें से प्रत्येक ब्राह्मण को मधु, घी एवं श्रेष्ठ माडंगलिक फलों के साथ एक-एक स्वर्णमुद्रा प्रदान की। इसके सिवा उन पाण्डुनन्दन ने ब्राहणों को सजे-सजाये सौ घोडे, उत्तम वस्त्र, इच्छानुसार दक्षिणा और बछडों - सहित दूध देने वाली बहुत-सी कपिला गौए दी। उन गौओं के सीगों में सोने और खुरों में चांदी मढे हुए थे। उन सबको देकर युधिष्ठिर उन गौओं एवं ब्राह्मणो की परिक्रमा की ।
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