महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 120 श्लोक 51-71
विंशत्यधिकशततम (120) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
पाण्डुनंदन अर्जुन ने मेरे शिर में यह तकिया लगाया है, उसे आप लोग देखें। मैं इस शय्या पर तब तक शयन करूंगा, जब तक कि सूर्य उत्तरायण में नहीं लोट आते हैं। ‘सात घोड़ो से जुत हुए उत्तम तेजस्वी रथ के द्वारा जब सूर्य कुबेर की निवासभूत उत्तर दिशा के पथ पर आ जायंगे, उस समय जो राजा मेरे पास आयेंगे, वे मेरी ऊर्ध्व गति को देख सकेंगे। निश्र्चय ही उसी समय मैं अत्यंत प्रियतम सुहृदों की भांति अपने प्यारे प्राणों का त्याग करूंगा। ‘राजाओ ! मेरे इस स्थान के चारों ओर खाई खेद दो। मैं यहीं इसी प्रकार सैंकडो़ बाणों से व्याप्त शरीर के द्वारा भगवान् की सूर्य की उपासना करूंगा। ‘भूपालगण! अब आप लोग आपस का वैरभाव छोड़ कर युद्ध से विरत हो जाये।
संजय कहते हैं- महाराज! तदनंतर शरीर से बाण को निकाल फेंकने की कला में कुशल वेद्य भीष्म जी की सेवा में उपस्थित हुए। वे समस्त आवश्यक उपकरणों से युक्त और कुशल पुरूषों द्वाराभलीभांति शिक्षा पाये हुए थे। उन्हें देखकर गड्गानंदन भीष्म ने आपके पुत्र दुर्योधन से कहा-‘वत्स! इन चिकित्सकों को धन देकर सम्मान पूर्वक विदा कर दो। मुझे यहां इस अवस्था में अब इन वैद्यों से क्या काम है? ‘क्षत्रिय-धर्म में जिसकी प्रशंसा की गयी है। उस उत्तम गति को मैं प्राप्त हुआ हूं। भूपालो! मैं बाणशय्यापर सोया हुआ हूं। अब मेरा यह धर्म नहीं है कि इन बाणों को निकाल कर चिकित्सा कराऊं। नरेश्रवरों ! मेरे इस शरीर को इन बाणों के साथ ही दग्ध कर देना चाहिये। भीष्म की यह बात सुनकर आपके पुत्र दुर्योधन ने यथा-योग्य सम्मान करके वेद्यों को विदा किया। तदनंतर विभिन्न जनपदों के स्वामी नरेशगण अमित तेजस्वी भीष्म की यह धर्म विषयक उत्तम निष्ठा देखकर बडे़ विस्मित हुए। राजन्! आपके पितृतुल्य भीष्म को उपर्युक्त तकिया देकर उन नरेश, पाण्डव तथा महारथी कौरव सभी ने एक साथ सुंदर बाण शय्या पर सोये हुए महात्मा भीष्म के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और सब ओर से भीष्म की रक्षा की व्यवस्था करके सभी वीर अपने शिबिर को ही चल दिये। वे अत्यंत आतुर होकर भीष्म का ही चिंतन कर रहे थे। सायंकाल में खून से लथपथ हुए वे सब लोग अपने निवास स्थान पर गये । पाण्डव महारथी भीष्म के गिर जाने से बहुत प्रसन्न थे और हर्ष में भरकर विश्राम कर रहे थे।
उस समय महाबली भगवान् श्रीकृष्ण यथासमय उनके पास पहुंचकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर इस प्रकार बोले-‘कुरूनंदन! सौभाग्य की बात है कि तुम जीत रहे हो। यह भी भाग्य की ही बात है कि भीष्म रथ से गिरा दिये गये। ‘ये सत्यप्रतिज्ञ महारथी भीष्म सम्पूर्ण शास्त्रों के पारङ्गत विद्वान् थे। इन्हें मनुष्य तथा सम्पूर्ण देवता मिलकर भी मार नहीं सकते थे। आप दृष्टिपातमात्र से ही दूसरों को भस्म करने में समर्थ हैं। आपके पास पहुंचकर भीष्म आपकी घोर दृष्टि से ही नष्ट हो गये हैं’। उनके ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण को इस प्रकार उत्तर दिया-‘श्रीकृष्ण ! आप हमारे आश्रय हैं तथा आप ही भक्तों को अभय दान करने-वाले हैं। आपके ही कृपा-प्रसाद से विजय होती हैं और आप के ही रोष से पराजय होती है। ‘केशव! आप समरभूमि में सदा जिनकी रक्षा करते हैं और नित्यप्रति जिनके हित में तत्पर रहते हैं, उनकी विजय हो तो यह कोई आश्र्चर्य की बात नहीं हैं। आपकी शरण लेने पर सर्वथा विजय की प्राप्ति कोई आश्र्चर्य की बात नहीं है, ऐसा मेरा निश्रचय है’। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर जनार्दन श्रीकृष्ण ने मुसकराते हुए कहा-नृपश्रेष्ठ ! आपका कथन सर्वथा युक्तिसंगत हैं।
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