महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-21
चतुर्थ (4) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय के द्वारा भूमि के महत्व का वर्णन
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर महर्षि व्यासजी चले गये। धृतराष्ट्र भी उनके पूर्वोक्त वचन सुनकर कुछ कालतक उन पर सोचविचार करते रहे। भरतश्रेष्ठ! दो घड़ीतक सोचने-विचारने के पश्र्चात् बारंबार लम्बी सांस खींचते हुए उन्होंने विशुद्ध हृदय वाले संजय से पूछा-‘संजय! पृथ्वी का पालन करने वाले ये शूरवीर नरेशइस भूमि के लिये ही अपना जीवन निछावर करके युद्ध का अभिनंदन करते और छोटे-बडे़ अस्त्र-शस्त्रों द्वारा एक दूसरे पर घातक प्रहार करते हैं। इस भूतल के ऐश्र्वर्य को स्वयं ही चाहते हुए वे एक दूसरे को सहन नहीं कर पाते हैं। परस्पर प्रहार करते हुए यमलोक की जनसंख्या बढ़ाते हैं, परंतु शांत नहीं होते हैं। अत: मैं ऐसा मानता हूं कि यह भूमि बहुसंख्यक गुणों से विभूषित है। इसलिये संजय! तुम मुझसे इस भूमि के गुणों का ही वर्णन करो। ‘कुरूक्षेत्र इस जगत् के कई हजार, लाख, करोड़ ओर अरबों वीर एकत्र हुए हैं । ‘संजय! ये लोग जहां-जहां से आये हैं, उन देशों और नगरों का यथार्थ परिणाम मैं तुमसे जानना चाहता हूं। ‘क्योंकि तुम अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि व्यासजी के प्रभाव से दिव्य बुद्धिरूपी प्रदीप से प्रकाशित ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न हो गये हो’।
संजय ने कहा-महाप्राज! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपसे इस भूमि के गुणों का वर्णन करूंगा। भरतश्रेष्ठ! आपको नमस्कार है; आप शास्त्रदृष्टि से इस विषय को देखिये और समझिये। राजन्! इस पृथ्वी पर दो तरह के प्राणी उपलब्ध हैं-स्थावर और जङ्गम। जङ्गम प्राणियों की उत्पत्ति के तीन स्थान हैं-अण्डज, स्वेदज और जरायुज। राजन्! सम्पूर्ण जङ्गम जीवों में जरायुज श्रेष्ठ माने गये हैं, जरायुजों में भी मनुष्य ओर पशु उत्तम हैं। वे नाना प्रकार की आकृतिवाले होते हैं। राजन्! उनके चौदह भेद हैं, जो वेदों में बताये गये हैं। भूपाल! उन्हीं में यज्ञों की प्रतिज्ञा हैं। ग्रामवासी पशु और मनुष्यों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और वनवासी पशुओं में सिंह श्रेष्ठ हैं। समस्त प्राणियों का जीवन-निर्वाह एक दूसरे के सहयोग से होता हैं। स्थावरों को उद्गिज कहते हैं। उनकी पांच ही जातियां हैं- वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली और त्वक्सार (बांस आदि)। ये सब तृणवर्ग की जातियां हैं। ये स्थावर-जड्गमरूप उन्नीस प्राणी हैं। इनके साथ पांच महाभूतों को गिन लेने पर इनकी संख्या चौबीस हो जाती हैं। गायत्री के भी चौबीस ही अक्षर होते हैं। इसलिये इन चौबीस भूतों को भी लोकसम्मत गायत्री कहा गया हैं। भरतश्रेष्ठ! जो लोक में स्थित इस सर्वगुणसम्पन्न पुण्यमयी गायत्री को यथार्थरूप से जानता हैं, वह कभी नष्ट नहीं होता।
नरेश्वर! उपर्युक्त चौदह प्रकार के जरायुज प्राणियों ने वनवासी पशु सात हैं और ग्रामवासी भी सात ही हैं। सिंह, व्याघ्र, वराह, महिष, गज, रीछ और वानर- ये सात वनवासी पशु माने गये हैं। गाय, बकरी, भेंड़, मनुष्य, घोडे़, खच्चर और गद्रहे- इन सात पशुओं को साधु पुरूषों ने ग्रामवासी बताया हैं। राजन्! इस प्रकार ये ग्रामवासी और वनवासी मिलकर कुल चौदह पशु कहे गये हैं। सब कुछ इस भूमि पर ही उत्पन्न होता है और भूमि में ही विलीन होता हैं। भूमि ही सब प्राणियों की प्रतिष्ठा और भूमि ही सब का परम आश्रय है। जिसके अधिकार में भूमि है, उसी के अधिकार में सम्पूर्ण चराचर जगत् हैं, इसीलिये भूमि के प्रति आसक्ति रखने वाले राजालोग एक-दूसरे को मारते हैं।
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