महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 9 श्लोक 37-76
नवम (9) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
राजन्! पूर्वोक्त सभी नदियां सम्पूर्ण विश्र्व की माताएं हैं, वे सबकी सब महान् पुण्य फल देनेवाली है। इनके सिवा सैकड़ों और हजारों ऐसी नदियां हैं,जो लोगों के परिचय में नहीं आयी हैं। राजन्! जहां तक मेरी स्मरण शक्ति काम दे सकी है, उसके अनुसार मैंने इन नदियों के नाम बताये हैं। इसके बाद अब मैं भारतवर्ष के जन पदों का वर्णन करता हूं, सुनिये। भारत में ये कुरू-पाञ्चाल, शाल्व, माद्रेय-जाङ्गल, शूरसेन, पुलिंद, बोध, माल, मत्स्य, कुशल, सौशल्य, कुंति, कांति, कोसल, चेदि, मत्स्य, करूष, भोज, सिंधु-पुलिंद, उत्तमाश्र्व, दशार्ण, मेकल, उत्कल, पञ्चाल, कोसल, नैकपृष्ठ, धुरंधर, गोधा, मद्रकलिंग, काशि, अपरकाशि, जठर, कुक्कुर, दशार्ण, कुंति, अवन्त, अपरकुंति, गोमंत, मन्दक, सण्ड, विदर्भ, रूपवाहिक, अश्मक, पाण्डुराष्ट्र, गोपराष्ट्र, करीत, अधिराज्य, कुशाद्य तथा मल्लराष्ट्र । वारवास्य, अयवाह, चक्र, चक्राति, शक, विदेह, मगध, स्वक्ष, मलज, विजय, अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, यकृल्लोभा, मल्ल, सुदेष्ण, प्रह्लाद, माहिक, शशिक, बाह्लिक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, अपरान्त, परान्त, पञ्चाल, चर्ममण्डल, अटवीशिखर, मेरूभूत, उपावृत्त, अनुपावृत्त, स्वराष्ट्र, केकय, कुन्दापरान्त, माहेय, कक्ष, सामुद्रनिष्कुट, बहुसंख्यक अन्ध्र, अन्तर्गिरि, बहिर्गिरि, अङ्गमलज, मगध, मानवर्जक समन्तर प्रावृषेय तथा भार्गव। पुण्ड्र, भर्ग, किरात, सुदृष्ट, यामुन, शक, निषाद, निषध, आनर्त, नैर्ॠत, दुर्गाल, प्रतिमत्स्य, कुन्तल, कोसल, तीरग्रह, शूरसेन, ईजिक, कन्यकागुण, तिलभार, मसीर, मधुमान् , सुकन्दक, काश्मीर, सिन्धुसोवीर, गान्धार, दर्शक, अभीसार, उलूत, शैवाल, बाह्लिक, दार्वी, वानव, दर्व, वातज, आमरथ, उरग, बहूवाद्य, सुदाम, सुमल्लिक, वध्र, करीषक, कुलिन्द, उपत्यक, वनायु, दश, पार्श्वरोम, कुशबिन्दु, कच्छ, गोपालकक्ष, जाङ्गल, कुरूवर्ण, किरात, बर्बर, सिद्ध, वैदेह, ताम्रलिप्तक, ओण्ड्र, म्लेच्छ, सैसिरिध्र और पर्वतीय इत्यादि। भरतश्रेष्ठ! अब जो दक्षिण दिशा के अन्यान्य जनपद हैं उनका वर्णन सुनिये- द्रविड़, केरल, प्राच्य, भूषिक, वनवासिक, कर्णाटक, महिषक, विकल्प, मूषक, झिल्लिक, कुन्तल, सौहृद, नमकानन, कौकुट्टक, चोल, कोङ्कण, मालव, नर, समङ्ग, करक, कुकूर, अङ्गार, मारिष, ध्वजिनी, उत्सव-संकेत, त्रिगर्त, शाल्वसेनि, व्यूक, कोकबक, प्रोष्ठ, समवेगवश, विन्ध्यचुलिक, पुलिन्द, वल्कल, मालव, बल्लव, अपरबल्लव, कुलिन्द, कालद, कुण्डल, करट, मूषक, स्तनवाल, सनीप, घट, सृंजय, अठिद, पाशिवाट, तनय, सुनय, ॠषिक, विदभ, काक, तङ्गण, परतङगण, उत्तर और क्रूर अपरम्लेच्छ, यवन, चीन तथा जहां भयानक म्लेच्छ जाति के लोग निवास करते हैं, वह काम्बोज। सकृद्ग्रह, कुलत्थ, हूण, पारसिक, रमण-चीन, दशमालिक, क्षत्रियों के उपनिवेश, वैश्यों और शूद्रों के जनपद, शूद्र, आभीर, दरद, काश्मीर, पशु, खाशीर, अन्तचार, पह्लव, गिरिगहवर, आत्रेय, भरद्वाज, स्तनपोषिक, प्रोषक, कलिङग, किरात जातियों के जनपद, तोमर, हन्यमान् और करभञ्जक इत्यादि।
राजन्! ये तथा और भी पूर्व और उत्तर दिशा के जनपद एवं देश मैंने संक्षेप से बताये हैं । अपने गुण और बल के अनुसार यदि अच्छी तरह इस भूमिका पालन किया जाय तो यह कामनाओं की पूर्ति करनेवाली कामधेनु बनकर धर्म, अर्थ और काम तीनों के महान् फल की प्राप्ति कराती हैं। इसीलिये धर्म और अर्थ के काम में निपुण शूरवीर नरेश इसे पाने की अभिलाषा रखते हैं और धन के लोभ में आसक्त हो वेगपूर्वक युद्ध में जाकर अपने प्राणों का परित्याग कर देते हैं। देवशरीरधारी प्राणियों के लिये और मानव शरीरधारी जीवों के लिये यथेष्ट फल देने वाली यह भूमि उनका परम आश्रय होती हैं। भरतश्रेष्ठ! जैसे कु्त्तें मांस के टुकडे़ के लिये परस्पर लड़ते और एक दूसरे को नोचते हैं, उसी प्रकार राजा लोग इस वसुधा को भोगने की इच्छा रखकर आपस में लड़ते और लूट-पात करते हैं; किंतु आज तक किसी को अपनी कामनाओं से तृप्ति नहीं हुई। भारत! इस अतृप्ति के ही कारण कौरव और पाण्डव साम, दान, भेद और दण्ड के द्वारा सम्पूर्ण वसुधा पर अधिकार पाने के लिये यत्न करते हैं। नरश्रेष्ठ! यदि भूमि के यथार्थ स्वरूप का सम्पूर्ण रूप से ज्ञान हो जाय तो यह परमात्मा से अभिन्न होने के कारण प्राणियों के लिये स्वयं ही पिता, भ्राता, पुत्र, आकाशवर्ती पुण्यलोक तथा स्वर्ग भी बन जाती हैं।
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