महाभारत वन पर्व अध्याय 106 श्लोक 1-23
षडधिकशततमो (106) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
राजासगर का संतान के लिये तपस्या करना और शिवजी के द्वारा वरदान पाना लोमशजी कहते हैं- राजन्! तब लोकपितामह ब्रह्माजी ने अपने पास आये हुए सब देवताओंसे कहा- ‘देवगण! इस समय तुम सब लोग इच्छानुसार अभीष्ट स्थान को चले जाओ । ‘अब दीर्घकाल के पश्चात समुद्र फिर अपनी स्वाभाविक अवस्था में आ जायगा। महाराज भगीरथ अपने कुटुम्बी जनों के उद्धार का उद्देश्य लेकर जलनिधि समुद्र को पुन: अगाध जल-राशि सेभर दगें ‘। ब्रह्माजी की यह बात सुनकर सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवता अवसर की प्रतीक्षा करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही चले गये । युधिष्ठिर ने पूछा-ब्रह्मान् भगीरथ के कुटुम्बजन समुद्र की पुर्ति में निमित क्योंकर कि बने मुने? उनके निमित बनने का कारण क्या है? और भगीरथ के आश्रय से किस प्राकर समुद्र कीपूर्ति हुई? तपोधन! विप्रवर! मैं यह प्रसंग जिसमें राजाओं के उतम चरित्र वर्णन हैं, आपके मुख से विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हॅू । वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय! महात्मा धर्मराज के इस प्रकार पूछने पर विप्रवर लोमशने महात्मा राजा सगर का महात्मय बतलाया । लोमशजी बोले–राजन्-इक्ष्वाकुवश में सगर नाम से प्रसिद्ध एक रजा हो गये हैं। वे रुप, धैर्य और बल से सम्पन्न तथा बडे़ प्रतापी थे, परंतु उनके कोई पुत्र न था । भारत! उन्होंने हैहय तथा तालजंगनामक क्षत्रियों का संहार करके सब राजाओं बपने वश में कर लिया और अपने राज्य का शासन करने लगे । भरतश्रेष्ठ! राजा सगर के दो पत्नियां थीं, वैदर्भी और शैब्या। उन दानों को ही अपने रुप और यौवन बड़ा अभिमान था । राजेद्र! राजा सगर अपनी दोनो पत्नियों साथ कैलाश पर्वत जाकर पुत्र इच्छा से बडी़ तपस्या करने लगे। योगयुक्त होकर महान् तप में लगे हुए महाराज सगर को त्रिपुरनाशक,त्रिनेत्रधारी,शंकर,भव,ईशान,शूलपाणि,पिनाकी,त्र्यम्बक,उग्रेश,बहुरुप और उमापति आदि नामों से प्रसिद्ध महात्मा भगवान दर्शन हुआ । वरदायक भगवान शिव को देखते ही महाबाहु राजा सगर दोनो पत्नियों सहित प्रणाम किया और पुत्र के लिये याचना की। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर पत्नीसहित नृपश्रेष्ठ सगर से कहा-‘राजन्! तुमने यहां जिस मुहूर्त मे वर मांगा है, उनका परिणाम यह होगा । ‘नरश्रेष्ठ! तुम्हारी एक पत्नी के गर्भ से अत्यन्त अभिमानी साठ हजार शूरवीर पुत्र होगे, परंतुवे सब के सब एक ही साथ नष्ट हो जायँगे। भूपाल! तुम्हारी जो दूसरी पत्नी है, उसके गर्भ से एक ही शूरवीर वंशधर पुत्र उत्पन्न होगा । ऐसा कहकर भगवान शंकर वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा सगर भी अत्यन्त प्रसन्नचित हो पत्नियों सहित अपने निवासस्थान को चले गये । नरश्रेष्ठ! तदनन्दतर उनकी वे दनों कमलनयनी पत्नियों वैदर्भी औरशैब्या गर्भवती हुई। फिर समय आने पर वैदर्भी ने अपने गर्भ सेएक तॅूबी उत्पन्न की और शैब्या ने देवता के समान सुन्दर रूप एक पुत्र को जन्म दिया। राजा सगर ने उस तॅूबी को फेंक देने का विचार किया । इसी समय आकाश से एक गम्भीर वाणी सुनायी दी ‘राजन्! ऐसा दु:साहस ने करो। अपने इन पुत्रों का त्याग करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। इस तॅूबीं में से एक–एक बीज निकालकर घीसे भरे हुए गरम घड़ो में अलग–अलग रखो और यत्नपूर्वक इन सबकी रक्षा करो । ‘पृथ्वीपते! ऐसा करने से तम्हे साठ हजार पुत्र प्राप्त होगे। नररेष्ठ! महादेवजी ने तुम्हारे लिये इसी क्रम से पुत्र जन्म होने का निर्देश किया है, अत: तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिेये ।
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