महाभारत वन पर्व अध्याय 109 श्लोक 1-19

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नवाधिकशततमो (109) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: नवाधिकशततमोअध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

पृथ्वी पर गंगाजी के उतरने और समुद्र को जल से भरने का विवरण तथा सगर पुत्रों का उद्धार लोमशजी कहते हैं –राजन ! राजा भगीरथ की बात सुनकर देवताओं का प्रिय करने के लिये भगवान शिव ने कहा - एवमस्तुमहाभाग ! मैं तुम्हारे लिये आकाश से गिरती हुई कल्याणमयी पुण्यस्वरुपा दिव्य देवनदी गंगा को अवश्य धारण करुंगा । महाबाहो ! ऐसा कहकर भगवान शिव भांति भांति के अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित अपने भयंकर पार्षदों से घि‍रे हुए हिमालय पर आये ।वहां ठहर कर उन्होंने पर श्रेष्‍ठ भगीरथ से कहा - महाबाहो ! गिरीरा नन्दिनी महानदी गंगा से भूतल पर उतरने के लिए प्रार्थना करो । नरेश्वर ! मैं तुम्हारे पितरों को पवित्र करने के लिए स्वर्ग से उतरती हुई सरिताओं मे श्रेष्‍ठ गंगा को सिर पर धारण करुंगा । भगवान शंकर की कही हुई बात सुनकर राजा भगीरथ एकाग्रचित हो प्रणाम करके गंगाजी का चिन्तन किया ।राजा के चिन्तन करने पर भगवान शंकर को खड़ा हुआ देख पुण्य सलिता रमणीय नदी गंगा सहसा आकाश से नीचे गिरीं । उन्हें गिरती देख दर्शन के लिए उत्सुक हो महर्षियों सहित देवता, गन्धर्व, नाग और यक्ष वहां आ गये । तदनन्तर हिमालय नन्दिनी गंगा आकाश से वहां आ गिरी ।उस समय उन के जल में बड़ी बड़ी भंवरे और तरंगे उठ रही थी ।मत्स्य और ग्राह भरे हुए थे । राजन ! आकाश की मेखलारुप गंगा को भगवान शिव ने अपने ललाट देश मे पड़ी हुई मोतियों की माला की भांति धारण कर लिया । महाराज ! नीचे गिरती हुई फेन पुंज से व्याप्त हुए जल वाली समुद्रगामिनी गंगा तीन धाराओ में बंटकर हंसों की पंक्तियों के समान सुशोभित होने लगी । वह मतवाली स्त्री की भांति इस प्रकार आयी कि कहीं तो सर्प शरीर की भांति कुटिल गति से बहती थी और कहीं कहीं ऊंचे से नीचे गिरकर चट्टानों से टकराती जाती थी एवं श्वेत वस्त्रों के समान प्रतीत होने वाले फेनपुंज उसे आच्छादित किये हुए थे ।कहीं कहीं वह जल के कलकल नाद से उत्तम संगीत सागा रही थी । इस प्रकार अनेक रूप धारण करने वाली गंगा आकाश से गिरी और भूतल पर पहूंच कर राजा भगीरथ से बोली - महाराज ! रास्ता दिखाओ मैं किस मार्ग से चलूं पृथ्वी से ! तुम्हारे लिये ही मैं इस भूतल पर उतरी हूं । यह सुनकर राजा भगीरथ जहां महात्मा सगर पुत्रों के शरीर पड़े थे , वहां गंगाजी के पावन जल से उन शरीरों को प्लावित करने के लिए उस स्थान से प्रस्थित हुए । विश्ववन्दित भगवान शंकर गंगाजी को सिर पर धारण करके देवताओं के साथ पर्वत श्रेष्‍ठ कैलाश को चले गये ।राजा भगीरथ ने गंगाजी के साथ समुद्र तट पर जाकर वरुणालय समुद्र को बडे वेग से भर दिया और गंगाजी को अपनी पुत्री बना लिया ।तत्पश्चात वहां उन्होने पितरों के लिए जलदान किया और पितरों का उद्धार होने से वे सफल मनोरथ हो गये । युधिष्ठि‍र ! जिस प्रकार गंगा त्रिपथगा ( स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी पर गमन करने वाली ) हुई, वह सब प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया ।महाराज ! समुद्र को भरने के लिये ही गंगा पृथ्वी पर उतारी गयी थी ।राजन ! देवताओं ने कालेय नामक दैत्यौं को जिस प्रकार मार गिराया और कारणवश महात्मा अगस्त्य ने जिस प्रकार समुद्र पी लिया तथा उन्होंने ब्राह्माणों की हत्या करने वाले वातापि नामक दैत्य को जिस प्रकार नष्‍ट किया, वह सब प्रसंग, जिसके वि‍षय में तुमने पूछा था , मैंने बता दिया ।

इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्यमाहात्म्यकथन वि‍षयक एक सौ नवां अध्याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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