महाभारत वन पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-19

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दशम(10) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

व्यासजी का जाना, मैत्रेयजी का धृतराष्ट्र और दुर्योधन से पाण्डवों के प्रति सद्भाव का अनुरोध तथा दुर्योधन के अशिष्ट व्यवहार से रुष्ट होकर उसे शाप देना

धृतराष्ट्र बोले- महाप्राज्ञ मुने ! आप जैसा चाहते हैं, यही ठीक है। मैं भी इसे ही ठीक मानता हूँ तथा ये सब राजा लोग भी इसी का अनुमोदन करते हैं। मुने ! आप भी वही उत्तम मानते हैं, जो कुरुवंश के महान अभ्युदय का कारण है। मुने ! यही बात विदुर, भीष्म और द्रोणाचार्य ने भी मुझे कही है। यदि आपका मुझ पर अनुग्रह है और यदि कौरवकुल पर आपकी दया है तो आप मेरे पुत्र दुर्योधन को स्वयं ही शिक्षा दीजिये।

व्यासजी ने कहा- राजन ! ये महर्षि भगवान मैत्रेय आ रहे हैं। पाँचों पाण्डव बन्धुओं से मिलकर अब ये हम लोगों से मिलने के लिये यहाँ आते हैं। महाराजा ! ये महर्षि ही इस कुल की शान्ति के लिये तुम्हारे पुत्र दुर्योधन को यथायोग्य शि़क्षा देंगे। कुरुनन्दन ! मैत्रेय जो कुछ कहें, उसे निःशंक होकर करना चाहिये। यदि उनके बताये हुए कार्य की अवहेलना की गयी तो वे कुपित होकर तुम्हारे पुत्र को शाप दे देंगे।

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! ऐसा कहकर व्यासजी चले गये और मैत्रेयजी आते हुए दिखायी दिये। राजा धृतराष्ट्र ने पुत्र सहित उनकी अगवानी की और स्वागत सत्कार के साथ उन्हें अपनाया। पाद्य, अघ्र्य आदि उपचारों द्वारा पूजित हो, जब मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय विश्राम कर चुके, तब अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने नम्रतापूर्वक पूछा--। भगवन ! इस कुरुदेश में आपका आगमन सुखपूर्वक तो हुआ है न? वीर भ्राता पाँचों पाण्डव तो कुशल से है न? ‘क्या वे भरतश्रेष्ठ पाण्डव अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहना चाहते हैं? क्या कौरवों में उत्तम भ्रातृभाव अखण्ड बना रहेगा?

मैत्रेयजी ने कहा- मैं तीर्थ यात्रा के प्रसंग से घूमता हुआ अकस्मात कुरुजांगल देश में चला आया हूँ। काम्यकवन में धर्मराज युधिष्ठिर से मेरी भेंट हुई थी। प्रभो ! जटा और मृगचर्म धारण करके तपोवन में निवास करने वाले उन महात्मा धर्मराज को देखने के लिये वहाँ बहुत-से मुनि पधारे थे। महाराज ! वहीं मैंने सुना कि तुम्हारे पुत्रों की बुद्धि भ्रान्त हो गयी है। वे द्यूत रूपी अनीति में प्रवृत्त हो गये और इस प्रकार जुए के रूप में उनके ऊपर बड़ा भारी भय उपस्थित हो गया है। यह सुनकर मैं कौरवों की दशा देखने के लिये तुम्हारे पास आया हूँ। राजन ! तुम्हारे ऊपर सदा से ही मेरा स्नेह और प्रेम अधिक रहा है। महाराज ! तुम्हारे और भीष्म के जीते-जी यह उचित नहीं जान पड़ता कि तुम्हारे पुत्र किसी प्रकार आपस में विरोध करें। महाराज ! तुम स्वयं इन सबको बांधकर नियन्त्रण में रखने लिये खम्भे के समान हो; फिर भी पैदा होते हुए इस घोर अन्याय की क्यों उपेक्षा कर रहे हो। कुरुनन्दन ! तुम्हारी सभा में डाकुओं की भाँति जो बर्ताव किया गया है, उसके कारण तुम तपस्वी मुनियों के समुदाय में शोभा नहीं पा रहे हो।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर महर्षि भगवान मैत्रेय अमर्षशील राजा दुर्योधन की ओर मुड़कर उससे मधुर वाणी में इस प्रकार बोले।

मैत्रेयजी ने कहा- महाबाहु दुर्योधन ! तुम वक्ताओें में श्रेष्ठ हो; मेरी एक बात सुनो। महानुभाव मैं तुम्हारे हित की बात बता रहा हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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