महाभारत वन पर्व अध्याय 110 श्लोक 17-34
दशाधिकशततमा (110) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
भारत आज भी यहां देवताए वं ऋशि मुनि निवास करते है ।सायंकाल ओर प्रात:काल यहां उनके द्वारा प्रज्वलित की हुई अग्निका दर्शन होता है । कुन्तीनन्दन इस तीर्थ मे गोता लगाने वाले मानवों का सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है । अत: कुयश्रेष्ठ तुम अपने भाइयों के साथ यहां स्नान करों । नन्दा मे गोता लगाने के पश्चात तुम्हें कौशिकी के तट पर चलना होगा , जहां महर्षि विश्वामित्र जी ने उत्तम एवं उग्रतपस्या की थी । वैशम्पायन जी कहते है-तदनन्तर राजा युधिष्ठिर अपने दलबल के साथ नन्दा में गोता लगा कर रमणीय एवं शीतलपुण्यमयी कौशिकी के तट पर गये । वहां लोमशजी ने कहा –भरत श्रेष्ठ यह देवताओं की नदी पुण्यसलिला कौशिकी है और यह विश्वामित्र का रमणीय आश्रम है , जो प्रकाशित हो रहा है । यहीं कश्यपगोत्रीय महात्मा विभाण्ड का पुण्य नामक आश्रम है । इन्ही के तपस्वी एवं जितेन्द्रिय पुत्र महात्मा ऋष्यश्रृंग है, जिन्होने अपनी तपस्या के प्रभाव से इन्द्र द्वारा वर्षा करवायी थी । उन दिनो देश में धोर अनावृष्टि फैल रही थी, वैसे समय मे ऋष्यश्रृंग ने मुनि के भय से बल और वृत्रासुर के विनाशक देवराज इन्द्र ने उस देश में वर्षा की थी । वे तेजस्वी एवं शक्तिशाली मुनि मृगी के पेट से पैदा हुए थे और कश्यपनन्दन विभाण्डक के पुत्र थे । उन्होंने राजा लोमपाद के राज्य में अत्यन्त अदभूत कार्य किया था ।तब वर्षा से खेती अच्छी तरह लहलहा उठी, तब राजा लोमपाद ने अपनी पुत्री शान्ता ऋष्यश्रृंग को ब्याह दी ; ठीक उसी तरह , जैसे सूर्यदेव ने अपनी बेटी का ब्रह्माजी के साथ ब्याह किया था युधिष्ठिर ने पूछा-भगवन कश्यप नन्दन विभाण्डक के पुत्र ऋष्य श्रृंगमृगी के पेट के कैसे उत्पन्न हुए मनुष्य का पशुयोनियों से संसर्ग करना तो शास्त्र और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से विरुद्ध है । ऐसे विरुद्धयोनिसंसर्ग से उत्पन्न हुआ बालक तपस्वी कैसे हो सका उस बुद्धिमान बालक के बल से ओर वृत्रासुर का विनाश करने वाले देवराज इन्द्र ने अनावृष्टि के समय वर्षा कैसे की । नियम ओर व्रत का पालन करने वाली राजकुमारी भी कैसी थी, जिसने मृगस्वरूप मुनिका भी मन मोह लिया। राजर्षी लोभपादमो बड़े धर्मात्मा सुने गये है, फिर उनके राज्य में इन्द्र वर्षा क्यों नहीं करते थे । भगवन ! ये सब आतें आप विस्तारपूर्वक यथार्थरूप से बताइये । मैं महर्षि ऋष्यश्रृंग के चरित्र को सुनना चाहता हूं । लोशमजी ने कहा– राजन ! ब्रह्मर्षि विभाण्डक का अन्त: करण तपस्या सये पवित्र हो गया था । वे प्रजापति के समान तेजस्वी और अमोघवीर्य महात्मा थे । उनके प्रतापी पुत्र ऋष्यश्रृंग का जन्म कैसे हुआ, यह बताता हूं सुनो । जैसे विभाण्डक मुनि परम पूजनीय थे, वैसे ही उनका पुत्र भी बड़ा तेजस्वी हुआ । वह बाल्यावस्था मे भी वृद्ध पुरूषों द्वारा सम्मानित होता था । कश्यपगोत्रीय विभाण्डक मुनि देवताओं के समान सुन्दर थे । वे एक बहुत बड़े कुण्ड में प्रविष्ट होकर तपस्या करने लगे।उन्होंने दीर्घकाल तक महान क्लेश सहन किया ।
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