महाभारत वन पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-10
द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
ऋष्यश्रृंग का पिता को अपनी चिन्ता का कारण बताते हुए ब्रह्मचारी रूपधारी वेश्या के स्वरूप और आचरण का वर्णन
ऋष्यश्रृंग ने कहा- पिताजी ! यहां एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह न तो छोटा था और न बहुत बड़ा ही। उसका हृदय बहुत उदार था । उसके शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी और उसकी बड़ी बड़ी आंखे कमलों के सदृश जान पड़ती थीं । वह स्वयं देवताओं के समान सुशोभीत हो रहा था । उसका रूप बड़ा सुन्दर था । वह सूर्यदेव की भांति उद्भासित हो रहा था। उसके नेत्र स्वच्छ, चमकिले एवं कजरारे थे । वह बड़ा गोरा दिखायी देता था । उसकी जटां बहुत लम्बी, साफ सुथरी और नीले रंग की थीं। उनसे बड़ी मधुर गन्ध फैल रही थी। वे सारी जटाएं एक सुनहरी रस्सी से गुंथी हुई थीं । उसके गले में एक ऐसा आश्चर्यरूप आभुषण (कण्ठा) था, जो आकाश में बिजली की भांति चमक रहा था । उसके गले में नीचे ( वक्ष:स्थल पर ) दो मांसपिण्ड थे, जिन पर रोएं नहीं उगे थे । वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे । उस ब्रह्मचारी के नाभिदेश के समीप जो शरीर का मध्यभाग था, वह बहुत पतला था और उसका नितम्बभाग अत्यन्त स्थूल था । जैसे मेरे कौपीन के नीचे यह मूंज की मैखला बंधी है, इसी प्रकार उसके कटि प्रदेश में भी एक सोने की मेखला ( करधनी ) थी, जो उसके चीर के भीतर से चमकती रहती थी । उसकी अन्य सब बातें भी अद्भुद, एवं दर्शनीय थीं । पैरों में (पायल की) छम छम ध्वनि बड़ी मधुर प्रतीत होती थी । इसी प्रकार हाथों की कलाइयों में मेरी इस रूद्राक्ष की माला की भांति उसके दो कलापक (कंगन) बांध रखे थे, उनसे भी बड़ी मधुर ध्वनि होती रहती थी । वह ब्रह्मचारी जब जनिक भी चलता फिरता या हिलता डुलता था, उस समय आभूषण बड़ी मनोहर झनकार उत्पन्न करते थे, मानो सरोवर में मतवाले हंस कलरव कर रहें हो। उसके चीर भी अद्भुद दिखायी देते थे । मेरी कौपीन के ये कल्कल वस्त्र सुन्दर नहीं है । उसका मुख भी देखने ही योग्य था । उसकी अद्भुद शोभा थी । ब्रह्मचारी की एक एक बात मन को आन्द सिन्धु में निमग्न सा कर देती थी । उसकी वाणी कोकिल के समान थी, जिसे एक बार सुन लेने पर अब पुन: सुनने के लिये मेरे अन्तरात्मा व्यथित हो उठी है । तात ! जैसे माधवमास (वैशाख या वंसत ऋतु) में (सौरभयुक्त मलय-) समीर से सेवित वन उपवन की शोभा होती है, उसी प्रकार पवनदेव सेवित वह ब्रह्मचारी उत्तम एवं पवित्र गन्ध से सुवासित और सुशोभित हो रहा था । उसकी जटा सटी हुई और अच्छी प्रकार से बंधी हुई थी, जो ललाट प्रदेश को दो भागों में विभक्त थी; किन्तु बराबर नहीं थी । उसके कुण्डलमण्डित कान सुन्दर एवं विचित्र चक्रवाकों से घिरे हुए से जान पड़ते थे । उसके पास एक विचित्र गोलाकार फल (गेंद) था, जिस पर वह अपने दाहिने हाथ से आघात करता था । वह फल (गेंद) पृथ्वी पर जाकर बार बार उंचे की ओर उछलता था। उस समय उसका रूप अद्भुद दिखायी देता था ।
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