महाभारत वन पर्व अध्याय 124 श्लोक 18-25
चतुर्विशत्यधिकशततम (124) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
इस प्रकार उनकी भुजा स्तम्भित करके महातेजस्वी च्यवन ऋषि ने मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्नि में आहूति दी । वे देवराज इन्द्र को मार डालने के लिये उद्यत होकर कृत्या उत्पन्न करना चाहते थे । च्यवन ऋषि के तपोबल से वहां कृत्या प्रकट हो गयी । उस कृत्या के रूप में महाप्रराक्रमी महादैत्य मद का प्रादुर्भाव हुआ । जिसके शरीर का वर्णन देवता तथा असुर भी नहीं कर सकते । उस असुर का विशाल मुख बड़ा भंयकर था । उसके आगे के दांत तीखे दिखायी देते थे । उसकी ठोड़ी सहित नीचे का ओष्ठ धरती पर टिका हुआ था और दूसरा स्वर्गलोक तक पहूंच गया था । उसकी चार ढाढ़े सौ सौ योजन तक फैली हुई थी । उस दैत्य के दूसरे दांत भी दस दस योजन लम्बें थे । उनकी आकृति महलों के कंगूरों के समान थी । उनका अग्रभाग शूल के समान तीखा दिखलायी देता था । दोनो भुजाऐं दो पर्वतो के समान प्रतीत होती थीं । दोनों की लंबाई एक समान दस दस हजार योजन की थी । उसके दोनों नेत्र चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रज्वलित हो रहे थे । उसका मुख प्रलयकारी की अग्नि के समान जाज्वल्य मान जान पड़ता था । उसकी लपलपाती हुई चंचल जीभ विद्युत के समान चतक रही थी और उसके द्वारा वह अपने जबड़ो को चाट रहा था । उसका मुख खुला हुआ था, मानों वह सारे जगत को बलपूर्वक निगल जायगा । वह दैत्य कुपित हो अपनी अत्यन्त भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण जगत को गूंजाता हुआ इन्द्र को खा जाने के लिये उनकी ओर दौड़ा ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत तीथयात्रा पर्व लोमश तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सुकन्योपाख्यान विषयक एक सौ चोबिसवां अध्याय पूरा हुआ ।
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